पादप कार्यिकी या पादप शरीर क्रिया विज्ञान | plant physiology in hindi

वनस्पति विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत पौधों की जैव क्रियाओं  जैसे - भोजन का निर्माण, शरीर का परिवद्धन, उपापचय, श्वसन, उत्सर्जन, जनन, वृद्धि तथा गति आदि का अध्ययन किया जाता है पादप शरीर क्रिया विज्ञान (plant physiology in hindi) कहलाता है ।

यह पौधों के विकास वृद्धि तथा व्यवहार को निर्धारित करने वाले प्रवर्धो की व्यवस्था एवं क्रियात्मकता का अध्ययन है इसे पादप कार्यिकी भी कहा जाता है ।

स्टीफेन हेल्स (stephan hales) को पादप शरीर क्रिया विज्ञान के जनक कहा जाता है।


पादप शरीर क्रिया विज्ञान का अर्थ एवं परिभाषा | plant physiology meaning in hindi


वनस्पति विज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत पौधों की शरीर क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है पादप शरीर क्रिया विज्ञान (plant physiology in hindi) कहलाता है ।

पादप शरीर क्रिया विज्ञान की परिभाषा (defination of plant physiology in hindi) - "पादप कार्यिकी पौधों की क्रियाओं एवं वृद्धि प्रवर्धो के अध्ययन को कहा जाता है ।"

"Plant physiology is the study of the the process of growth and function of plant."


पादप शरीर क्रिया विज्ञान क्या है? | plant physiology in hindi


पौधों और जन्तुओं में ये सभी जैव क्रियायें कोशिका  तथा प्राय: उसमें उपस्थित जीवद्रव्य (protoplasmद्वारा संचालित होती । 

एक पादप कोशिका में उपस्थित जल, खनिज लवण तथा कार्बन डाइऑक्साइड मिलकर भोजन का निर्माण, कोशिका के अन्दर उपस्थित पर्णहरित और प्राकृतिक रूप में उपलब्ध सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा प्राप्त कर करते हैं ।

पादप कोशिका में जल और उसमें घुले हुए खनिज लवण मूल तन्त्र की विभिन्न कोशिकाओं के द्वारा पहुंचाये जाते है ।

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पादप कार्यिकी या पादप शरीर क्रिया विज्ञान) | plant physiology in hindi

तैयार भोजन को या तो ऊर्जा उत्पादन या जीवद्रव्य निर्माण के कार्य में लाया जाता है अथवा शेष भोजन को प्रतिकूल समय के लिए एकत्रित किया जाता है ।

वास्तव में इसी क्रिया के कारण पौधे संसार के सभी जीवों के लिए आधारभूत उत्पादक है । 


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पौधों में पादप शरीर क्रिया विज्ञान | physiology in plant hindi


जीवद्रव्य की मात्रा बढ़ने से कोशिकाओं की लम्बा, चौड़ाई तथा संख्या में वृद्धि होती है और पौधे के नये अंगों जैसे - शाखाओं पत्तियों इत्यादि का निर्माण होता है अर्थात् उसके परिमाप में वृद्धि होती है ।

एक समय ऐसा भी आता है जब जनन (reproduction) के लिए विशेष अंग व संरचनायें बनती हैं और इन अंगों में बनने वाली इकाइयाँ एक निश्चित विधि से नई सन्तानों का निर्माण करती हैं ।

इस प्रकार पौधे की पूरी कार्य - कहानी में पौधे का सम्बन्ध उसके चारों ओर के पर्यावरण से भी होता है।

जैसे - मृदा अर्थात् स्थलमण्डल, वायु अर्थात् वायुमण्डल और यदि पौधा जलीय है तो जलमण्डल से गैसी का आदान - प्रदान; पानी को वाथ्य रूप में निकालने की क्रिया वाष्पोत्सर्जन, जल तथा उसमें घुले खनिज लवणों का अवशोषण इत्यादि ।

इन सब कार्यों में सबसे अधिक महत्त्व जल का है जो शरीर में आवश्यक सभी पदार्थों के विलायक के रूप में कार्य करने के साथ - साथ जीवद्रव्य की जीवन शक्ति बनाये रखने ।

विभिन्न प्रकार की उपापचयी क्रियाओं (metabolic activities) के सम्पादित होने में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है । अत यह जीवद्रव्य को सक्रियता को बनाये रखने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।


पादप शरीर क्रिया विज्ञान से क्या तात्पर्य है?


पौधों के अन्दर होने वाली विभिन्न क्रियायें जो चाहे भोजन बनाने से सम्बन्धित ऊर्जा उत्पन्न करने से प्रजनन करने से हों अथवा लम्बाई - चौड़ाई बढ़ाने से या गति करने से - जीवन सम्बन्धी क्रियायें अर्थात् जैविक क्रियायें है ।

ये सभी क्रियायें एक - दूसरे से सम्बन्धित होती हैं और इनका प्रभाव सम्पूर्ण पौधे पर सम्मिलित रूप से पड़ता है ।

क्या आप जानते है कोशिका जीवन की आधारभूत इकाई है अधिकांश क्रियायें इन्हीं कोशिकाओं तथा उनके अन्दर उपस्थित कोशिकांगों के द्वारा सम्पादित होती हैं ।

इन सभी क्रियाओं को सही और व्यवस्थित रूप में चलाने का श्रेय एक विशेष प्रकार के जटिल रासायनिक पदार्थों जिन्हें एन्जाइम्स (enzymes) कहा जाता है ।

ऐसी क्रियायें विभिन्न प्रकार की सामान्यतः रासायनिक अभिक्रिया या कभी कभी भौतिक क्रियाओं पर निर्भर करती हैं ।


पादप शरीर क्रिया विज्ञान का भविष्य एवं कार्य क्षेत्र | scope of plant physiology in hindi


मनुष्य सदैव भोजन के लिये पूर्णरूप से पौधों पर निर्भर रहा है सभी भोज्य पदार्थ बिना किसी अपवाद के पादप सामग्री है या अप्रत्यक्ष रूप से पौधे से उत्पन्न होते है ।

उदाहरण - माँस, अण्डे तथा दुग्ध पदार्थ इत्यादि ।


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पौधे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कपड़ों, ईंधन, दवाइयों तथा इमारती सामान के साधन हैं । सुन्दरता तथा सजावट के रूप में आनन्द देने वाले है ।

इसलिये मनुष्य सदा से पौधों का विकास करता रहा है । पौधों की वृद्धि को नियन्त्रित करने के सिद्धान्तों को समझने में पादप शरीर क्रिया विज्ञान का महत्व (impotance of plant physiology in hindi) रहा है।

संसार में भविष्य की पीढ़ियों के जीवन स्तर को ऊँचा करना पादप शरीर क्रिया विज्ञान (plant physiology in hindi) में होने वाले विकास पर तथा उनका कृषि, वन एवं उद्योगों में अनुप्रयोग पर निर्भर करता है ।

पादप कार्यिकी के आधारभूत सिद्धान्तों का व्यवहारिक अनुसन्धान के साथ सह - सम्बन्ध का एक अत्युत्त उदाहरण है ।

हालाँकि पादप शरीर क्रिया विज्ञान का प्राथमिक सम्बन्ध आधारभूत सिद्धान्तों से है जो कि पौधों की वृद्धि से सम्बन्ध रखते हैं ।

इन अन्वेषणों का मानवमात्र के लिये उपयोग इनके कृषि समस्याओं को सुलझाने के अनुप्रयोग पर निर्भर करता है ।


पादप शरीर क्रिया विज्ञान का सम्बन्ध पादप वृद्धि एवं पादप व्यवहार से है । इसमें वे प्रक्रियायें भी सम्मिलित हैं जिनसे रासायनिक पदार्थों का संश्लेषण होता है ।

पौधे भूमि से जल एवं खनिज लवणों तथा वायुमण्डल से कार्बनडाइआक्साइड तथा ऑक्सीजन प्राप्त करते हैं जिनसे विभिन्न उपापचयी क्रियाओं द्वारा जटिल रासायनिक पदार्थों का निर्माण होता है, जिनका संवहन पौधों के विभिन्न भागों में होता है ।

पौधों के जीवन में बीज का अंकुरण, वृद्धि, पुष्प का बनना, फल उत्पन्न होना, बीज बनना क्रमानुसार मुख्य घटनायें होती हैं जो कि वर्ष के विभिन्न मौसमों में होती हैं तथा विकास की ये उत्तरोत्तर अवस्थायें विभिन्न अंगों के निर्माण के समन्वय में होती है जिनका नियन्त्रण कुछ विशेष रासायनिक पदार्थों के नियन्त्रण में होता है ।

इन रासायनिक वृद्धि, पदार्थों के सम्बन्ध में पादप वृद्धि एवं व्यवहार का अध्ययन आवश्यक है । पौधों की वृद्धि एवं विकास दूसरे पौधों एवं प्राणियों के सह - सम्बन्ध में होता है ।

पौधे विभिन्न वातावरणीय दशाओं, जैसे तापक्रम, प्रकाश, जल, मृदा कारकों इत्यादि से भी प्रभावित होते हैं ।


अतः परिस्थिति के सम्बन्ध में पौधों की शरीर क्रियाओं का अध्ययन आवश्यक होता है ।

प्रदूषण एक मानव जनित समस्या है ।

हालाँकि पर्यावरणीय प्रदूषण से पौधे भी प्रभावित होते हैं तथापि पौधे प्रदूषण जनक पदार्थों से प्रक्रिया करके उनका उपयोग भी करते हैं जिससे वातावरण स्वच्छ होता है ।

प्रकाश संश्लेषण में 14CO2 का प्रयोग करने पर पाया गया है कि पौधे प्रदूषण जनक यौगिकों जैसे कार्बन मोनोआक्साइड, सल्फर डाईआक्साइड तथा ओजोन का अवशोषण कर लेते हैं । प्रदूषण जनकों का अवशोषण, केवल तभी होता है जब स्टोमेटा खुले रहते हैं ।

पौधों में प्रदूषण जनकों का उपापचयन हो जाता है जैसे कि ओजोन सम्भवत: ऑक्सीजन में परिवर्तित हो जाती है ।

कार्बन मोनोआक्साइड में प्रवेश होकर उपापचयन हो जाता है तथा सल्फर डाईआक्साइड का सल्फर के रूप में सल्फर उपापचयन में उपयोग हो जाता है ।

इस प्रकार पौधे प्रदूषण को कम करके वातावरण को शुद्ध करते हैं ।


भारतीय कृषि में पादप शरीर क्रिया विज्ञान का क्या महत्व है? | Impotance of plant physiology in hindi


कृषि अब भी संसार का सबसे बड़ा व्यवसाय है जिसमें सबसे अधिक व्यक्ति लगे है तथा इससे सर्वाधिक उत्पादन होता है ।

कृषि पौधों की वृद्धि एवं उत्पादन योग्यता पर निर्भर करती है । अत: कृषि विज्ञान उपयोगी पौधों को उगाने के लिये भूमि का इच्छानुकूल रूपान्तरण है ।"

इस उद्देश्य के लिये उन्नत किस्मों का प्रजनन, खरपतवारों, रोगों तथा कीटों का नियन्त्रण, मृदा की उर्वरता बनाये रखना, अधिक उत्पादकता आदि के लिये पादप शरीर क्रिया विज्ञान (plant physiology in hindi) का उपयोग आवश्यक है ।


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पादप शरीर क्रिया विज्ञान (plant physiology in hindi) में बहुत से अन्वेषण कृषि में उत्थान के लिये किये गये है -

  • उच्च उत्पादकता
  • वृद्धि कारकों का उपयोग
  • खरपतवार नियंत्रण
  • प्रकाश संश्लेषण
  • खनिज पोषण
  • नई किस्में
  • अवधि एवं वातावरणीय नियंत्रण ।


1. वृद्धि कारकों का उपयोग


पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिये वृद्धि कारकों, हारमोन्स एवं संश्लेषित रसायनों का अनुप्रयोग सफलतापूर्वक किया गया है ।

सर्वप्रथम आक्सीन्स व इथाइलीन का प्रयोग व्यावसायिक रूप से किया गया । इनका प्रयोग जड़ उत्पन्न करने अनिषेकफलन (parthenocarpy) उत्पन्न करने फल लगने तथा फलों की सघनता कम करने में फसल उत्पादन बढ़ाने के लिये किया जाता है।


इथाइलीन -

इथाइलीन के प्रचरण से फलों को इच्छानुसार पकाया जा सकता है जिससे फलों के दूसरे देशों में आयात - निर्यात में सहायता मिली है।


जिबॅलिन्स - 

जिबॅलिन्स का कृषि में बहुतायत से उपयोग किया गया है । इसका पहले बीज रहित फलों (parthenocarpy) को उत्पन्न करने के लिये किया गया । फलों की उपज तथा उत्तम आकृति के लिये भी इनका उपयोग किया जाता है ।

गुच्छे वाले फलों, जैसे अंगूर में गुच्छों का जिब्रेलिक एसिड (G.A.) से प्रचरण करने पर गुच्छा बढ़ जाता है । जिससे फलों की सघनता कम होकर आकार बढ़ जाता है तथा सड़न कम हो जाती है ।

सेब में जिबॅलिन A, के प्रचरण से बड़े तथा बीज रहित फल उत्पन्न किये गये है । जिबॅलिन्स के उपयोग से बीज के आलू की प्रसुप्ती को तोड़ने, सलाद व सीलेरी में बीज का उत्पादन बढ़ाने इत्यादि में सफलतापूर्वक उपयोग किया जा रहा है ।


साइटोकाइनिन्स - 

ये वृद्धि घटाने वाले (growth retardants) हैं ।

साइटोकाइनिन्स उपयोग से पौधों या पौधों के भागों की जीवन अवधि को बढ़ाया जा सकता है । इनका उपयोग बीज उत्पादन से पहले अनावश्यक वानस्पतिक वृद्धि को रोकने तथा फसल सलवन के लिये आकार नियन्त्रण के लिये किया जाता है ।

मैलिक हाइड्रेजाइड (MH) का उपयोग भण्डारण में आलू जैसी फसलों में अंकुरण रोकने के लिये किया जाता है । काल्चीसीन के प्रयोग से बहुगुणिता उत्पन्न करके बड़े आकार तथा अधिक फल उत्पन्न करने के लिये किया जाता है ।

सभी अनुप्रयोगों के आधार पर आमतौर से, संश्लेषित आक्सीन्स को प्राकृतिक रूप से उपस्थित आक्सीन्स से लाभदायक पाया गया है क्योंकि अधिकतर पादप ऊतकों एन्जाइम्स उपस्थित होते है जिनसे प्राकृतिक आक्सीन्स शीघ्रता से समाप्त हो जाते हैं जबकि अप्राकृतिक अर्थात् संश्लेषित आक्सीन्स लम्बी अवधि तक बने रहते हैं ।


अधिक उपयोगी नये वृद्धि नियन्त्रक निम्नलिखित है -

  • अलार - 85 या बी - 9
  • साइकोसैल
  • इथरैल
  • सैविन


अलार - 85 या बी - 9 -

एक अत्यन्त उपयोगी नया वृद्धि नियन्त्रक है ।

अलार - 85 या बी - 9 फलों वाले पेड़ों पर फूल आने या उसके तुरन्त पहले छिड़काव करने पर फलों की गुणवत्ता अच्छी हो जाती है तथा वे जल्दी पकते हैं, अपरिपक्व फलों का झड़ना रुक जाता है ।

इससे फलों के यान्त्रिक सलवन में सरलता होती है । इसके प्रयोग से मूंगफली, आलू , टमाटर इत्यादि फसलों में उपज बढ़ जाती है । फसल पहले पक जाती है तथा टमाटर में रोपण व फल लगने में सुधार होता है।


साइकोसैल -

CCC के प्रयोग से गेहूँ, जई तथा राई में पौधे छोटे एवं सख्त होते है उपज बढ़ती है, जड़ों की वृद्धि अधिक होती है कल्ले अधिक निकलते हैं ।

सोयाबीन, टमाटर तथा पात गोभी में सुखा प्रतिरोधिता, शीत प्रतिरोधिता तथा लवण प्रतिरोधिता बढ़ती है ।

कपास में फूल अधिक आते है डोढ़ों की संख्या बढ़ती है तथा उपज बढ़ती है । अंगूर व टमाटर में फूल जल्दी आते हैं तथा फलों का आकार बड़ा हो जाता है ।


इथरैल -

इथरैल के प्रयोग से धान्य फसलों (गेहूँ, जौं, चावल, जई, राई) व मटर में झुकाव प्रतिरोधिता बढ़ती है तथा कल्ले अधिक निकलते है ।

खरबूजा, तरबूज, खीरा, ककड़ी, सीताफल आदि में मादा फूलों की संख्या बढ़ती । अंगूर, सेव व नाशपाती में फलों की सघनता कम की जाती है । टमाटर में उपज बढ़ती है ।


सैविन -

सैविन के प्रयोग से सेव में पुष्पन से पहले छिड़काव करने पर फलों की संख्या घट जाती है, परन्तु अगले वर्ष भी फल आते है अर्थात् एकान्तरित फलन समाप्त हो जाता है ।

इस प्रकार संश्लेषित यौगिकों के उपयोग से पौधों की वृद्धि तथा रूप पर नियन्त्रण किया जा सकता है जो कि कृषि तकनीक का अब एक आवश्यक अंग है । सुधार होता है ।


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2. खरपतवार नियन्त्रण


2.4 - D, 2, 4-5 - TMCPA तथा ऐसे दूसरे संश्लेषित आक्सीन्स की खोज से खरपतवारों के रासायनिक नियन्त्रण का विकास हुआ है ।

अब बहुत से खरपतवारनाशक, कीटनाशक तथा रोगनाशक उपलब्ध हैं ।


3. प्रकाश संश्लेषण


एक ऐसी अनोखी विधि है जिससे सौर ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित होती है ।

पौधों की प्रकाश संश्लेषण की क्षमता बढ़ाने का प्रत्यक्ष अर्थ उत्पादन में वृद्धि होता है । इस क्षमता के आधार पर पौधों को C3 व C4 पौधों में विभाजित किया जा रहा है ।

C4 पौधों, जैसे मक्का, ज्वार, राघी इत्यादि की तापक्रम, जल, ऊष्मा, की आवश्यकतायें C3 पौधों जैसे गेहूँ, चावल, जौं, कपास, सोयाबीन इत्यादि से भिन्न होती हैं ।

इसलिये किसी निश्चित जलवायु के लिये उचित पौधों की पहचान एवं स्थापना, उच्चतम उपज के लिये इस आधार पर की जा सकती है ।


4. प्रकाश श्वसन


एक व्यर्थ प्रक्रिया है जिससे निःसन्देह पादप उत्पादन घटता है । प्रारूपिक रूप से, वे पौधे जिनमें यह प्रक्रिया नहीं होती है उनमें तेज वृद्धि होती है तथा भोज्य पदार्थों का उत्पादन अधिकतम होता है ।

जैसे - मक्का तथा गन्ना ।

अत: चावल, गेहूँ तथा जौं जैसी फसलों में प्रकाश श्वसन रोकने या कम करने से उत्पादन बढ़ेगा । इनमें इस प्रकार की किस्में विकसित की जानी चाहिये जिनमें प्रकाश श्वसन न्यूनतम हो ।


5. खनिज पोषण


आधुनिक कृषि क्रान्ति में पौधों के लिये खनिज पोषण आवश्यकता के ज्ञान का बहुत बड़ा योगदान है । इससे NPK उर्वरकों की मात्रा का अधिकतम उपज के लिये निर्धारण किया गया है ।

इनके अलावा अन्य खनिज तत्वों की पौधों के लिये आवश्यकता तथा उनके प्रभाव की खोज का फसलों की उपज पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है । 

खनिज लवणों की न्यूनता से उत्पन्न रोगों की पहचान एवं उपचार सम्भव हो पाया है । मृदा की pH पौधों की वृद्धि को अत्यधिक प्रभावित करती है । मृदा pH का नियन्त्रण चूना (CaCO3) डालकर किया जाता है ।

अधिक चूना डालने से मृदा का pH 7 से अधिक हो जाता है तथा कैल्शियम एवं फॉस्फोरस मिलकर अघुलनशील लवण Cas (PO) बना लेते हैं जिससे पौधे को कैल्शियम तथा फॉस्फोरस दोनों ही नहीं मिलते है इनके अलावा मैंगनीज, लोहा, जिंक, बोरॉन तथा ताँबा कम मिलते हैं ।


6. नई किस्में


पादप शरीर क्रिया विज्ञान के सिद्धान्तों व अन्वेषणों के सहयोग से आनुवंशिकी एवं पादप प्रजनन (genetics and plant breeding) से ऐसी किस्में तथा संकर किस्में उत्पन्न की जा रही हैं जो सर्वोत्तम भोज्य पदार्थ प्रदान करें तथा जो प्रति इकाई क्षेत्र अधिकतम मूल्य दे और जो कृषकों एवं उपभोक्ताओं की अधिकतम पूर्ति करें ।

इससे तुषार अवरोधक व सूखा अवरोधक किस्में उत्पन्न करने में अत्यधिक सहायता मिलती है ।


7. अवधि

  • बसन्तीकरण
  • दीप्तिकालिता


बसन्तीकरण -

सिद्धान्तों के आधार पर पौधों के वृद्धि काल को कम किया जा सकता है उनमें विकास त्वरित किया जा सकता है तथा इनमें शीघ पुष्पन किया जा सकता है ।


दीप्तिकालिता -

सिद्धान्तों के आधार पर पौधों की जनन वृद्धि में कृत्रिम परिवर्तन किया जा सकता है । प्रत्येक पौधे को एक विशेष प्रकाश प्रेरक चक्र की आवश्यकता होती है ।

अब कृत्रिम प्रकाश द्वारा प्रकाश प्रेरक चक्र पर नियन्त्रण करने पर आवश्यकतानुसार पुष्पन किया जा सकता है जिससे असमय फलतः प्राप्त की जाती है ।

ग्रीन हाउस व ग्लास हाउस में टमाटर आदि की प्रणोदित कृषि की जाती है । नये क्षेत्र के लिये फसलों के बोने व काटने के समय का ठीक निर्धारण करके फसल के मान एवं उपयुक्तता को निश्चित रूप से बढ़ाया जा सकता है ।

वातावरणीय प्रभाव के कारण किसी किस्म को उपयुक्त समय पर बोने पर ही अधिकतम उपज प्राप्त की जा सकती है‌ क्योंकि सामान्यतः पुष्पण प्रकाश काल एवं तापक्रम से प्रभावित होता है । 

इस प्रकार पौधों की शरीर क्रियात्मक एवं क्षेत्र की जलवायु के ज्ञान के आधार पर ही उपयुक्त किस्म का चयन किया जा सकता है ।


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8. वातावरणीय नियन्त्रण


पौधों की शरीर क्रियात्मक अनुकूलता का लाभ उठाने के लिये कृषि तकनीकों को बनाया जाता है ।

उर्वरकों का अनुप्रयोग इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है । अधिक मूल्य एवं पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण उर्वरकों का अनुप्रयोग निम्नतम होना चाहिये क्योंकि केवल उर्वरक की मात्रा ही महत्वपूर्ण नहीं होती है ।

बल्कि पोषण के सन्तुलन एवं मृदा अवस्था का ज्ञान अधिक प्रभावकारी उपयोग के लिये आवश्यक होता है । जल नियन्त्रण भी ऐसे ही महत्वपूर्ण होता है । फसल के किस वृद्धि काल में उपज के लिये सिंचाई उपयोगी है ।

अब प्लास्टिक फिल्मस का जल ह्रास पर नियन्त्रण खरपतवार नष्ट करने तथा मृदा ताप बढ़ाने के लिये उपयोग किया जाता है ।


हरित ग्रह -

हरित ग्रहों से असमय फलों तथा सब्जियों के उत्पादन में क्रान्ति आई है ।

इससे वातावरण पर किसी हद तक नियन्त्रण किया जा सकता है । कुछ विशेषित कल्चर तकनीक भी कभी - कभी लाभप्रद होती है ।

उदाहरणत - अंगूर तथा दूसरे कुछ फलों के तने के गिर्डलिंग से पोषण के नीचे की ओर के बहाव को रोका जा सकता है इससे फलों का आना व उपज प्रभावित होती है ।

हाइड्रोपोनिक्स या बालुकी संवर्धन कुछ दशाओं में उपयोगी होती है जैसे कि आर्कटिक में जहाँ ग्रीष्मकाल में प्रकाश काफी होता है परन्तु अक्सर पाला पड़ता है तथा बाहरी वृद्धि के लिये जलवायु बहुत विभिन्न होती है ।

इस प्रकार ये तकनीक तथा अन्य कार्य जैसे - फसल चक्र, हरी खाद, उर्वरकों का चयन इत्यादि पादप शरीर क्रिया विज्ञान के आधारभूत सिद्धान्तों पर आधारित होते है ।


अनुकूलन तथा विशेष आवश्यकताओं के लिये पौधों का विकास

हालाँकि पौधों की नई किस्मों का विकास , एक आनुवंशिकी की समस्या है तथापि आवश्यकता को जान लेना आवश्यक होता है ।

पौधों की उत्पादकता, प्रकाश संश्लेषण, प्रकाश श्वसन तथा अन्ध श्वसन (dark respiration) की योग्यता का संयोजन होता है, तथापि केवल यह आवश्यक नहीं होता है, कि पहले को बढ़ाया जाये तथा दूसरे दोनों को कम किया जाये ।

उत्पादन की प्रकृति तथा उसके काल को विचारना भी आवश्यक होता है ।


उदाहरण - सेम का पौधा जिसमें प्रकाश संश्लेषण अधिक तथा श्वसन कम होता है तथा अधिक पत्तियाँ तथा कम फल लगते हैं लाभदायक नहीं होता है ।

कुछ पौधों में प्रकाश श्वसन एक बेकार प्रक्रिया है जिससे उनकी उत्पादकता घटती है, जैसे चावल, गेहूँ व जौं इत्यादि ।

कभी - कभी पौधों से विशेष उत्पादकों की आवश्यकता होती है, जैसे - एल्क्लायड्स, नारकोटिक्स या कुछ दूसरी दवाइयाँ या अन्य रसायन ।


उदाहरणतः - कुछ पौधों में लाइसीन की न्यूनता होती है जो कि प्राणियों की वृद्धि के लिये आवश्यक होती है । इसलिये गेहूँ तथा मक्का की विशेष आनुवंशिक प्रभेद या उत्परिवर्त (mutant) विकसित किये गये हैं जिनमें लाइसीन की मात्रा सामान्य से अधिक होती है जिससे खाद्यमान बढ़ा है ।

कई पदार्थों का उत्पादन विशेष शरीर क्रियात्मक समन्वय स्थापित करके किया जा सकता है ।

जैसे - रेडियोएक्टिव ग्लूटेमिन तथा एस्पारजीन का उत्पादन CO2 प्रदान करके व्यावसायिक रूप से संश्लेषित किया जा सकता है ।

पत्तियों पर अमोनिया लवण के छिड़काव तथा प्रदीप्ति काल व अप्रदीप्ति काल में समन्वय स्थापित करके उपज को बढ़ाया जा सकता है ।


पादप शरीर क्रिया विज्ञान (plant physiology in hindi) का उपयोग करके पौधों के व्यावसायिक रूप से उपयोगी गुणों को सुधारा जा सकता है ।

जैसे - अलसी व कपास में रेशा, मूंगफली, सोयाबीन, सूर्यमुखी में तेल की मात्रा, स्वीट क्लोवर में विषाक्त यौगिक कोमेरीनस् का उत्पादन रोकना ।

आजकल ऊर्जा की कमी की बहुत चर्चा रहती है ।

कृषि फार्म पर प्रयोग होने वाली अधिकतर ऊर्जा तेल से प्रदान की जाती है, जैसे, ट्रेक्टर तथा अन्य फार्म मशीनरी को चलाना, उर्वरकों के उत्पादन में प्रयुक्त होने वाली ऊर्जा, खाद्य पदार्थों का संवहन इत्यादि ।

भविष्य में सूर्य से प्राप्त ऊर्जा पर अधिक निर्भर होना पड़ेगा क्योंकि तेल ऊर्जा सीमित है ।

अतः प्रमुख वैज्ञानिक एम. कालविन ने ऐसे पौधे उगाने का परामर्श दिया है जिससे तेल, टरपीन्स् तथा अन्य रासायनिक यौगिक प्राप्त होते हैं जिनसे औद्योगिक आर्गनिक यौगिक या ईंधन प्राप्त हो सकता है ।


जैसे - एल्कोहल उत्पन्न करने के लिये गन्ना, पैट्रोलियम उत्पादन करने के लिये यूफॉरबिया (Euphorbia tinucalli, E. lathyris, E. lactea) की लेटैक्स वाली जातियाँ ।

ब्राजील में गन्ने से 20 बिलयन लीटर एल्कोहल का उत्पादन पैट्रोकैमिकल उद्योग में प्रयोग करने के लिये किया गया ।

कैलिफोर्निया में यूफॉरबिया लैथाइरस के एक एकड़ में उगाने पर 2 माह में 10 बैरल तेल का उत्पादन किया गया ।

वैज्ञानिक जे. लैविट ने कृषिगत्य बेकार व अनुपयोगी पदार्थ से फार्म पर ऊर्जा उत्पन्न करने के लिये आवन्स (चूल्हे) बनाने का सुझाव दिया है जिससे ईंधन प्राप्त किया जा सकता ।


पौधों का पर्यावरणीय प्रदूषण रोकने में क्या महत्व है?


पादप एवं प्रदूषण - 

प्रदूषण एक मानव जनित समस्या है ।

हालाँकि पर्यावरणीय प्रदूषण से पौधे भी प्रभावित होते हैं तथापि पौधे प्रदूषण जनक पदार्थों से प्रक्रिया करके उनका उपयोग भी करते हैं जिससे वातावरण स्वच्छ होता है । प्रकाश संश्लेषण में CO2 का प्रयोग करने पर पाया गया है ।

पौधे प्रदूषण जनक यौगिकों, जैसे कार्बन मोनो ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड तथा ओजोन का अवशोषण कर लेते है । प्रदूषण जनकों का अवशोषण, केवल तभी होता है जब स्टोमेटा खुले रहते हैं ।

पौधों में प्रदूषण जनकों का उपापचयन हो जाता है, जैसे कि ओजोन सम्भवतः ऑक्सीजन में परिवर्तित हो जाती है । कार्बन मोनो ऑक्साइड का में प्रवेश होकर उपापचयन हो जाता है तथा सल्फर डाइ ऑक्साइड का सल्फर के रूप में सल्फर उपापचयन में उपयोग हो जाता है ।

इस प्रकार पौधे प्रदूषण को कम करके वातावरण को शुद्ध करते हैं ।