वर्षा/वर्षण (Rainfall In Hindi) - अर्थ, परिभाषा एवं वर्षा के प्रकार लिखिए

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वर्षा/वर्षण (Rainfall In Hindi) - अर्थ, परिभाषा एवं वर्षा के प्रकार लिखिए

वर्षा (rain in hindi) की क्रिया रासायनिक विज्ञान में अवक्षेपण या स्कन्दन की क्रिया के समान ही होती है इसलिए इसे वर्षण (precipitation in hindi) भी कहा जाता है।

वर्षा/वर्षण का अर्थ? | (rain meaning in hindi?)

साधारण शब्दों में वर्षा का अर्थ बारिश या बरसात से होता है, परंतु इसे मेंह, वृष्टि (rain/rainfall in hindi) अथवा वर्षण भी कहां गया हैं ।

वर्षा का अर्थ (rain meaning in hindi) - "वायुमण्डल में जल-वाष्प संघनन की क्रिया के कारण जल - कणों में बदल जाती है । ये जल-कण धीरे-धीरे आकार में बड़े होते जाते हैं । जब इनका आकार काफी बड़ा हो जाता है तो इनका वायुमण्डल में लटके रहना सम्भव नहीं हो पाता, जब ये जलकण बूँदों के रूप में पृथ्वी पर गिरने लगते हैं । इस प्रक्रिया को वर्षा (rainfall in hindi) की संज्ञा दी जाती है ।"

वर्षा/वर्षण की परिभाषा? | (defination of rainfall in hindi?)

वर्षा की परिभाषा - "सरल शब्दों में जब पानी की बूँदें आकार में एक हद तक बढ़ जाती है तो ये वायुमण्डल में ठहर नहीं पाती हैं और गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में आकर बरसने लगती हैं इसी को वर्षा (rainfall in hindi) कहते हैं ।"

"Rainfall may be defined as the fall of moisture from the atmosphare to the earth surface is any form and in any quantity."

वर्षा किसे कहते है? | (what is rainfall in hindi?)

जब एक निश्चित वायुदाब और तापमान पर किसी घोलक माध्यम में घुले पदार्थ की अतिरिक्त मात्रा घोल के रूप में न रहकर गुरुत्व के प्रभाव से नीचे की ओर बैठने लगती है ठीक उसी प्रकार से जब वायुमण्डल के किसी भाग में निश्चित वायुदाब तापमान और आर्द्रता पर उपस्थित जल वाष्प की मात्रा अतिरिक्त हो जाती है तो वह नीचे गिरने लगती है जिसे वर्षा/वर्षण (rain/precipitation in hindi)  कहते हैं ।

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वर्षा कितने प्रकार की होती हैं? | types of rainfall in hindi

वर्षा मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं -

  • संवहनीय वर्षा ( Convectional Rainfall )
  • चक्रवाती वर्षा ( Cyclonic Rainfall )
  • पर्वतीय या पर्वतकृत वर्षा (Orographic Rain )


1. संवहनीय वर्षा ( Convectional Rainfall In Hindi ) –

भूपटल पर जब किसी स्थान पर अत्यधिक तापमान उत्पन्न हो जाता है तो वहाँ की वायु गर्म होकर वायुमण्डल में ऊपर उठने लगती है । यह क्रिया संवहन (convectional rainfall) कहलाती है । ऊपर जाकर फैलने से वायु ठण्डी हो जाती है, जिससे आकाश में गहरे कपासी बादल छा जाते हैं तथा तेज गर्जन एवं विद्युत की चमक के साथ घनघोर वर्षा होने लगती है । इस प्रकार की वर्षा उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में होती है । ग्रीष्म ऋतु में तीव्र गर्मी के कारण संवहनीय धाराएँ अधिक उत्पन्न होती हैं । भूमध्यरेखीय जलवायु प्रदेशों में संवहनीय वर्षा प्रतिदिन तीसरे पहर गर्जन- तर्जन के साथ होती है । भारत में संवहनीय वर्षा का दृश्य ग्रीष्मकाल में मानसूनी वर्षा के बीच - बीच में दृष्टिगत होता है ।

2. चक्रवाती वर्षा ( Cyclonic Rainfall In Hindi ) -

जहाँ पर कम दाब वाले चक्रवात चलते हैं वहाँ विभिन्न दिशाओं से पवनें केन्द्र में एकत्र हो जाती हैं और भिन्न - भिन्न दिशाओं में आने के कारण इन पवनों के तापमान एवं घनत्व में अन्तर आ जाता है । शीत एवं उष्ण वायु - राशियों के सम्पर्क के कारण शीतप्रधान पवनें उष्ण पवनों को ऊपर की ओर धकेल देती हैं । ऊपर पहुँचकर ताप की कमी के कारण उष्ण वायु - राशि घनीभूत होकर वर्षा कर देती है । अनुकूल परिस्थितियों में इनसे बौछारों के रूप में वर्षा होती है । इस प्रकार की वर्षा को चक्रवाती वर्षा (cyclonic rainfall) कहते हैं । शीत एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में प्रायः ऐसी ही वर्षा होती है । भारत में लौटते हुए मानसूनों द्वारा तमिलनाडु तथा आन्ध्रप्रदेश के तट पर होने वाली वर्षा चक्रवाती वर्षा ही है ।

3. पर्वतीय या पर्वतकृत वर्षा (Orographic Rain In Hindi ) -

ऊष्णार्द्र पवनों के मार्ग में जब कोई पर्वत या पठार अवरोधस्वरूप आ जाता है तो पवनें पर्वतीय ढाल के सहारे सहारे ऊपर उठती हैं । वायुमण्डल में ऊपर पहुँचकर निम्न तापमान के कारण पवने ठण्डी होकर वर्षा कर देती हैं इस प्रकार की वर्षा को पर्वतीय वर्षा (orographic rain) कहते हैं । पर्वत का जो भाग पवनों के सम्मुख पड़ता है, सबसे अधिक वर्षा प्राप्त करता है  जबकि विमुख ढालों पर पवनों के न पहुँच पाने के कारण वर्षा नहीं हो पाती है अथवा बहुत कम होती है जिसे वृष्टिछाया प्रदेश (rain shadow area) कहते हैं; जैसे हिमालय का वृष्टिछाया प्रदेश तिब्बत है । मानूसनी जलवायु प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु में पर्वतीय वर्षा ही होती है । पर्वतों के पवनभिमुख ढालों को सर्वाधिक वर्षा प्राप्त होती है । उनसे दूर हटने पर वर्षा मात्रा में कमी आती जाती है । विश्व में सर्वाधिक वर्षा पर्वतीय वर्षा द्वारा ही प्राप्त होती है । हिमालय पर्वत के दक्षिणी ढालों पर मानसूनी पवनों से तथा रॉकी पर्वत के उत्तरी ढालों पर पछुवा पवनों से इसी प्रकार की वर्षा होती है ।

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वर्षा की उत्पत्ति? | (origin of rainfall in hindi?)

वर्षा की उत्पत्ति की क्रिया के निम्न तीन चरण हैं - 

  • हवा का संतृप्तीकरण ( Saturation of Air )
  • जल वाष्प का संघनन ( Condensation of Water Vapour )
  • जल बूँदों का निर्माण ( Formation of Water drops )


वर्षा के रूप? (forms of rainfall in hindi?)


1. द्रव-रूपों में वर्षा (liquid forms of rainfall) -

  • फुहार या बूँदाबाँदी (drizzle) — इसमें बूँदों का आकार अत्यन्त सूक्ष्म होता है ये बूँदें धारदार न बरसकरं हवा की तरंगों की दिशा में लहराती दिखाई देती है ।
  • बौछारी जल वृष्टि (rainfall) – यह धारदार बारिश है जिसमें बूँदों का आकार बड़ा होता है ।
  • कोहरा (fog) – इसमें बूँदों का आकार इतना अधिक छोटा होता है कि ये सीधे जमीन पर न पहुँचकर वनस्पतियों, मकान की छतों पर दिखाई पड़ती हैं । कोहरे में जब धुआँ मिल जाता है तो इसे धूम्रकोहरा कहते हैं यह आवासीय बस्तियों के आस - पास दिखाई देता है ।

2. ठोस रूपों में वर्षा (solid forms of rainfall) -

  • हिमपात या बर्फ पड़ना (snowfall) – हिमपात में जल की बूँदे षटकोणीय रवों या क्रिस्टलों का रूप ले लेती हैं ऐसे क्रिस्टलों के झुण्डों को हिमलव (snowflakes) कहते हैं । जाड़े के मौसम में हिमालय पर्वत की ऊँचाइयों पर काफी हिमपात होता है ।
  • ओला पड़ना (hail fall) — जब बर्फ के छोट - छोटे रवों या क्रिस्टलों की परतों के बीच में पानी की परतें भी होती हैं तो इसे ओला (hail) कहते हैं । इनका निर्माण तब होता है जब बरसाती हुई बूँदे नीचे से ऊपर की ओर उठती हुई गर्म वायु - राशियों द्वारा ऊपर की ओर धकेल दी जाती है जहाँ ठण्डी वायुराशि के सम्पर्क में आने से बर्फ की बूँदों में बदल जाती है ।
  • पाला पड़ना या तुषारपात (frost fall) – यह एक प्रकार की स्थानीय वर्षा है । जब भूमि की सतह के निकट के वायुमण्डल का तापमान शून्य डिग्री के आस - पास पहुँच जाता है तब सतह के आस - पास की हवा में उपस्थित जल वाष्प संघनित होकर बर्फ की छोटी - छोटी बूँदों में परिवर्तित हो जाती है । इसे ही पाला पड़ना या तुषारापात कहते हैं ।

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विश्व में वर्षा का वितरण तथा प्रभाव? | (distribution and effect of rainfall in the world)

विश्व में वर्षा का वितरण सभी स्थानों पर समान नहीं है । धरातल की बनावट, जलवायु एवं पवनों की दिशा पर वर्षा की मात्रा निर्भर करती है ।


विश्व में वर्षा का वितरण निम्नवत् पाया जाता है -

(क) अधिक वर्षा के क्षेत्र ( Areas of Heavy Rainfall )

1. विषुवत्रेखीय अत्यधिक वर्षा की पेटी - उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में संवहन धाराएँ अधिक चलती हैं । इस पेटी में प्रतिदिन संवहनीय मूसलाधार वर्षा होती है । इस पेटी में वर्षा का वार्षिक औसत 200 सेमी० से अधिक रहता है । अत्यधिक वर्षा के कारण यहाँ सघन सदाबहार वनस्पति उगती है । वनों में नीचे धरातल दलदली हो जाता है । अधिक सघनता के कारण इन वनों में प्रवेश करना भी कठिन होता है यहाँ कृषि कार्य असम्भव है । कुछ ऊँचे भागों में कहवा के बागान लगाए गए तथा तटीय भागों में नारियल के वृक्ष उगते हैं ।

2. व्यापारिक पवनों की अधिक वर्षा की पेटी - व्यापारिक पवन प्रवाह क्षेत्र में इन पवनों से व्यापक वर्षा होती है अतः इसे 'व्यापारिक पवनों की अधिक वर्षा की पेटी' कहते हैं । इस पेटी का विस्तार 10° से 20° अक्षांशों के मध्य दोनों गोलार्द्धों में पाया जाता है । इस पेटी में मानसूनी पवनों से भारी वर्षा होती है । यहाँ वर्षा का स्वरूप प्रायः पर्वतीय होता है । इस पेटी में वर्षा का वार्षिक औसत 100 से 200 सेमी रहता है । अधिक वर्षा के कारण दक्षिण - पूर्वी एशियाई देशों में बागानी कृषि का विकास हुआ है । इस प्रदेश में चावल, रबड़, चाय एवं गन्ना आदि फसलें उगाई जाती हैं ।


(ख) मध्यम वर्षा के क्षेत्र ( Areas of Medium Rainfall )

3. भूमध्यसागरीय मध्यम वर्षा की पेटी या शीतकालीन वर्षा की पेटी - यह पेटी 30 से 40° अक्षांशों के मध्य फैली हुई है । इस क्षेत्र में वायुदाब की पेटियों के खिसक जाने के कारण शीत ऋतु में ही वर्षा हो पाती है पछुवा पवनें तथा चक्रवात शीत ऋतु में अधिक वर्षा करते हैं । इस क्षेत्र में वर्षा का वार्षिक औसत 100 सेमी तक रहता है । शीतकालीन वर्षा के कारण भूमध्यसागरीय प्रदेश रसदार व तूरस फलों की खेती के लिए विश्व विख्यात हैं । यहाँ गेहूँ की सघन कृषि की जाती है । उत्तम जलवायु - दशाओं के कारण इस प्रदेश ने आर्थिक क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति की है ।

4. शीतोष्ण मध्यम वर्षा की पेटी - यह पेटी 40° से 60° अक्षांशों के मध्य दोनों गोलार्द्ध में पाई जाती है पछुवा पवनों का व्यापक प्रभाव रहने के कारण इस क्षेत्र में भारी वर्षा होती है दक्षिणी गोलार्द्ध की इस पेटी में चक्रवातों से भारी वर्षा होती है । इस पेटी में वर्षा का वार्षिक औसत 75 से 100 सेमी ० रहता है । इस प्रदेश में वर्षा की पर्याप्तता के कारण गेहूँ की खेती के विस्तृत प्रदेश विकसित हुए हैं । यहाँ गेहूँ की सघन कृषि की जाती है । गन्ना, चुकन्दर आदि फसलें हैं । जलवायु की उपयुक्तता के कारण यहाँ, आर्थिक विकास में पर्याप्त प्रगति हुई है ।


(ग) कम वर्षा के क्षेत्र ( Areas of Low Rainfall )

5. उपोष्ण कम वर्षा की पेटी - उच्च वायुदाब की यह पेटी 20° से 30° अक्षांशों के मध्य दोनों गोलार्द्ध में विस्तृत है । इस पेटी में वर्षा बहुत कम होती है क्योंकि नीचे उतरती हुई पवनें वर्षा नहीं करती हैं । अतः विश्व के अधिकांश उष्ण मरुस्थल इसी पेटी में पाए जाते हैं । इस पेटी में वर्षा का वार्षिक औसत 50 से 75 सेमी० तक ही रहता है । यहाँ मोटे अनाज-ज्वार-बाजरा व मक्का आदि उगाए जाते हैं ।

6. ध्रुवीय कम वर्षा की पेटी – 60° अक्षांशों से 90° अक्षांशों के मध्य न्यूनतम वर्षा होती है । 60° अक्षांशों के निकट मात्र 25 सेमी वर्षा ही होती है शेष भागों में वर्षा हिमकणों के रूप होती है । वर्षा का सीधा सम्बन्ध तापमान एवं वायुदाब से रहता है । ध्रुवीय प्रदेशों में सदैव उच्च वायुदाब रहता है जिस कारण ध्रुवीय उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में कम वर्षा होती है । हिम प्रभावित क्षेत्र होने के कारण इस प्रदेश में संकुल वनस्पति उगती है ।