भारत में सहकारी खेती (सहकारी कृषि) का महत्व एवं कार्य-क्षेत्र

भारत में सहकारी खेती (सहकारी कृषि) अपनाने पर अत्यधिक बल दिया गया ।

कुछ सदस्यों का मत यह भी था कि चीन की राजनैतिक स्थिति के कारण ही वहाँ सहकारी खेती या सहकारी कृषि (sahkari kheti/sahkari krishi) की प्रगति हुई है, परन्तु भारत में राजनैतिक स्थिति अनुकूल न होने से उसकी सफलता संदिग्ध है ।


सहकारी खेती की परिभाषा (defination of co-operative farming in hindi)


“विश्व में, कहीं भी सहकारी खेती से उत्पादन नहीं बढ़ा जापान और इजराइल में उत्पादन अवश्य बढ़ा किन्तु इसका श्रेय व्यक्तिगत खेती को है, यूगोस्लाविया में बल प्रयोग द्वारा सहकारी खेती या सहकारी कृषि (sahkari kheti/sahkari krishi) जारी की गई, इससे उत्पादन 15-20 प्रतिशत घट गया था ।"


भारत में सहकारी खेती (सहकारी कृषि) का महत्व एवं कार्य-क्षेत्र


1956 में सहकारी खेती का अध्ययन करने के लिये श्री एस० के० पाटिल के नेतृत्व में गठित एक शिष्टमण्डल चीन और जापान भेजा गया था ।

इसकी रिपोर्ट में सहकारी खेती को भारत के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिये लाभप्रद बतलाया गया ।

विश्व में फिलिस्तीन हा एक ऐसा देश है, जहाँ सहकारी खेती या सहकारी कृषि (sahkari kheti/sahkari krishi) एक सीमा तक सफल कही जा सकती है ।

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भारत में सहकारी खेती (सहकारी कृषि)

भारत में सहकारी खेती का भविष्य - आलोचकों के अनुसार सहकारी खेती विश्व के अन्य देशों में भी अधिक सफल नहीं हो रही है ।


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यदि कहीं इसमें प्रगति हुई है, तो इसका कारण सरकारी दबाव या संकटकालीन परिस्थितियाँ हैं । 

उदाहरणार्थ - रूस, चीन और पूर्वी यूरोप में सहकारी खेती सरकारी दबाव से सफल हुई और फिलिस्तीन में वहाँ की संकटकालीन परिस्थितियों के कारण उसका उत्थान हुआ ।

किन्तु अब तो इन देशों में भी जैसे - जैसे नई पीढ़ियाँ आ रही है वैसे - वैसे सहकारिता की भावना दुर्बल पड़ती जा रही है और सहकारी खेती की सफलता संदिग्ध हो गई है ।

ऐसी दशा में, भारत में सहकारी खेती के प्रचलन को बढ़ावा देना विवेकसंगत नहीं होगा ।

जनवरी 1959 में नागपुर में अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ और उसमें सहकारी कृषि सम्बन्धी यह प्रस्ताव पास हुआ। 


“भारत की भावी कृषि अर्थव्यवस्था का रूप सहकारी संयुक्त खेती होना चाहिये जिसमें कि भूमि को संयुक्त खेती के लिये एकत्र कर लिया जाता है ।"


जहाँ तक भारत में सहकारी खेती के भविष्य का प्रश्न है?

देश के अधिकांश भागों में कृषि योग्य बेकार पड़ी भूमि का सुधार करके खेती की यह प्रणाली आसानी से अपनाई जा सकती हैं।

सहकारी खेती को पं. कृषि श्रमिकों को बसाकर सहकारी कृषि या सहकारी खेती के लिये प्रोत्साहन दिया जा सकता है ।

भूमिहीन कृषि श्रमिकों को बसाका खेती को पं० जवाहर लाल नेहरू ने भी देश के कृषकों के लिये अत्यधिक लाभदायक बताकर इसे अपनाने की सिफारिश की थी ।

कभी बातों को दृष्टि में रखते हुये अपने देश के लिये यह अधिक उपयुक्त होगा कि पहले यहाँ उन्नत खेती प्रारम्भ की जाये तथा जब लोगों में धीरे - धीरे सहकारिता की भावना का रण हो जाये तो अन्त में सहकारी संयुक्त कृषि जिस पर अधिक बल है, भी लाग की जा सकेगी ।

पण सिंह ने भी भारत की वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपनी प्रसिद्ध पुस्तक India Poverty and its Solution में सहकारी संयुक्त खेती के विपक्ष में अनेक तर्क देते हए का विरोध किया था ।

अत: जब तक देश में सहकारी खेती के लिए कृषकों के लिए अनुकल नहीं बनाया जाता तब तक यहाँ इस खेती का भविष्य विशेष लाभकारी नहीं है ।


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भारत में सहकारी खेती का विकास एवं सफलता (development and success of farming co-operatives in India)


सहकारी खेती के विकास एवं सफलता के लिए निम्नांकित सुझाव दिये गये है, जो कि निम्नलिखित है -

1. हमारे देश में सहकारी खेती के विकास एवं सफलता के लिए सबसे महत्वपूर्ण कदम कृषकों के दिलों से उनका भू - स्वामित्व समाप्त होने का भय दूर करना है । इसके लिए प्रारम्भ में सहकारी उन्नत खेती, सहकारी संयुक्त खेती एवं सहकारी सेवा समितियों आदि को प्राथमिकता देकर अधिक से अधिक कृषकों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए ।

2. सहकारी कृषि समितियों में सरकारी कर्मचारियों का हस्तक्षेप कम से कम तथा जनता के प्रतिनिधियों को प्रभुत्व प्रदान करना चाहिए ।

3. पुरानी असफल सहकारी समितियों को पुनर्गठित करके उनके संचालन में सुधार लाना चाहिए ।

4. जोतों की सीमाबन्दी (Ceilling on Land Holdings) से प्राप्त भूमि को सहकारी खेती के अन्तर्गत ही लाया जाना चाहिये ।

5. सहकारी खेती के साथ - साथ ग्रामीण क्षेत्रों में लघु एवं कुटीर उद्योगों में भी सहकारिता को प्राथमिकता दी जानी चाहिये ।

6. सहकारिता - सम्बन्धी उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिये ।

7. जनता में सहकारिता से मिलने वाले लाभों का प्रचार - प्रसार करना चाहिये ।

8. सहकारी खेती को प्रोत्साहित करने के लिए कृषकों को सरकारी अनुदान दिया जाना चाहिए ।


भारत में सहकारी खेती के मार्ग में आने वाली कठिनाइयाँ (difficulties in the path of farming co-operatives in India)


सहकारिता एक ऐच्छिक संगठन है ।

किन्तु भारत में सहकारी खेती के प्रचलन को यदि ऐच्छिक आधार पर छोड़ दिया जाये, तो अधिक प्रगति नहीं हो सकेगी, क्योंकि भारतीय कृषक अपनी रूढ़िवादिता, अज्ञानता एवं भूमि प्रेम के कारण उसे तुरन्त नहीं अपनायेंगे ।

दूसरी ओर यदि सहकारी खेती का प्रचलन अनिवार्यता के आधार पर किया जाये तो यह सहकारी खेती के बजाय सरकारी खेती का रूप धारण कर लेगी और यह भी सम्भावना है कि सदस्य समिति के कार्यों में रूचि न लें ।

ऐसी दशा में सहकारी खेती असफल होने की आशंका है ।


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( 2 ) कृषकों में सहकारिता की भावना का अभाव (lack of feeling of co-operation among the farmers) -

आज हमारे ग्रामीण समाज की जो स्थिति है उसमें अभी सहकारिता की भावना बेहद कम है तथा व्यक्तिवादी भावना अधिक प्रबल है ।

एक - दूसरे के प्रति सहनशीलता नहीं है ।

आपसी झगड़े बहुत हैं जो सहकारी समितियाँ अभी गाँव में कार्यरत हैं, उनका काम ठीक नहीं चल रहा है ।

समितियों के चुनाव में झगड़े होते है, चुनाव हो जाने के पश्चात् भी बराबर दलबन्दियाँ चलती रहती हैं ।

ऐसी दशाओं में सहकारिता के द्वारा खेती जैसा जटिल कार्य सफल होना कठिन है ।


( 3 ) भूमि के प्रति किसान का मोह (farmers love for land) -

सहकारी खेती व भूमि सुधारों के प्रश्न पर विचार करते समय हमें एक मनोवैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि कृषकों को अपने व्यक्तिगत खेतों से अत्यधिक मोह है, जिसे सहकारी खेती से वे मिटाना नहीं चाहते ।


( 4 ) अन्य बाधायें (other hurdles) -


हमारे देश में उपरोक्त बाधाओं के अतिरिक्त कुछ  अन्य बाधायें भी है, जो सहकारी खेती के प्रचलन एवं विकास में बाधक हैं -

( 1 ) ऊँची जाति के लोग शारीरिक श्रम नहीं करते तथा आपस में मिलकर काम करने में अपना अपमान समझते हैं ।

( 2 ) अशिक्षा के कारण अधिकांश व्यक्ति अनुशासन में बंध कर कार्य करने में असमर्थ हैं ।

( 3 ) समितियों का प्रबन्ध चलाने के लिये योग्य व ईमानदार व्यक्तियों का अभाव ।

( 4 ) सदस्यों में सामूहिक दायित्व की भावना का अभाव ।

( 5 ) पशुओं की कमी, सिंचाई सुविधाओं का अभाव व गोदामों की कमी आदि सहकारी कृषि समितियों के प्रयासों को विफल कर देती है ।

( 6 ) समितियों के पास धन का अत्यधिक अभाव ।

( 7 ) कम भूमि पर बिखरे खेत ।

( 8 ) भूमि पर जनसंख्या का अधिक भार ।