भारत में बीज उत्पादन का महत्व एवं बीज प्रौद्योगिकी का क्षेत्र

भारत में बीज उत्पादन (seed production in india) का उत्तरदायित्व बीज वालों तथा चयनित कृषकों का होता है, जिनके पास शुद्ध बीज को बड़ी मात्रा में उगाने, स्वच्छ करने तथा विपणन करने का साधन तथा अनुभव  होता है ।


सामान्यत: बीज (seed in hindi) से किस्म के विकास तथा वितरण की ये तीनों अवस्थायें व्यक्तियों के पूर्णत: अलग - अलग वर्गों की होती हैं, परन्तु कभी - कभी दो या यहाँ तक ही तीनों अवस्थायें एक ही व्यक्ति वर्ग भी करता है ।


बीज (seed in hindi) पद के अन्तर्गत सस्यों के बीज, खाद्य तैलीय बीज, फलों के बीज, सब्जियों के बीज, कपास बीज, चारे की फसलों के बीज, बीजान्कुर तथा कन्द , शल्क - कन्द, प्रकन्द, जड़ें, सभी प्रकार की कलमें, घास एवं अन्य वनस्पतिक प्रवर्धित चारे की फसलों के सम्भाग तथा पशुओं के चारे सम्मिलित होते हैं ।


The term seeds includes "Seeds of crops including edible oil seeds and seeds of fruits and vegetables, cotton seeds, fodder seeds, seedlings and also tubers, blubs, rhizomes, roots, cuttings of all types, grass and other vegetively propagated material of fodder crops and cattle fodder” .


भारत में बीज उत्पादन इतिहास एवं बीज उत्पादन का महत्व

भारत में बीज उत्पादन का महत्व एवं बीज प्रौद्योगिकी का क्षेत्र
भारत में बीज उत्पादन का महत्व एवं बीज प्रौद्योगिकी का क्षेत्र

बीज उत्पादन का महत्व (Importance of seed production in hindi)


प्राथमिक रूप से भारत में बीज उत्पादन (seed production in india) में बढ़ोत्तरी का श्रेय अधिक उपज देने वाली किस्मों के प्रजनन का है ।

हालांकि सभी फसलों में उन्नत किस्मों के प्रजनन के प्रयास किये गये है ।


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पादप प्रजनन के क्षेत्र में दो प्रमुख घटनाओं से बीज उत्पादन का महत्व बढ़ा है -

( i ) मक्का की संकर किस्मों का विकास ।
( ii ) गेहूँ तथा चावल की बौनी ( dwarf ) किस्मों का विकास ।


भारत में सन् 1963-64 तक कृषि उत्पादन निम्नस्तर पर स्थिर अवस्था में था ।

देश की जनसंख्या आपेक्षित कम ( लगभग 50 करोड़ ) होने के बावजूद खाद्यान्नों का आयात करना पड़ता था ।


सन् 1956 में PL480 ( Public Law 480 ) के अंतर्गत संयुक्त राज्य अमेरिका से गेहूँ के छूट पर आयात ( Concessional import ) प्रारम्भ किया गया । जिससे देश में खाद्यान्नों की आपूर्ति हो पाती थी ।

सन् 1951 से 1962 तक खाद्यान्नों के उत्पादन में केवल 2-87 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वृद्धि हुई ।


जिसमें लगभग आधा भाग क्षेत्रफल में वृद्धि तथा आधा भाग उत्पादकता के फलस्वरूप था ।

परन्तु उसके बाद 1966 से 1978 तक की अवधि में खाद्यान्नों के उत्पादन में लगभग 4 प्रतिशत प्रतिवर्ष की वृद्धि अधिकांशत: उत्पादकता में वृद्धि के कारण हुई जिसका श्रेय संकर एवं अन्य उन्नतशील बीजों को है ।


गेहूँ तथा धान में बौनी किस्मों के प्रचलन, रासायनिक उर्वरकों की प्रचुरता तथा सिचाई के साधनों के कारण खाद्यान्नों के उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई ।

जिसे कि हरित क्रान्ति के नाम से जाना जाता है ।


इसके फलस्वरूप अब देश की वृहत जनसंख्या ( लगभग 120 करोड़ ) के लिये खाद्यान्नों के आपूर्ति स्वयं उत्पादन से हो जाती है ।

आनुवंशिक शुद्ध तथा अधिक उपज देने वाला बीज लाभप्रद फसल उत्पादन का आधार होता है ।


पादप प्रजननक, उत्तम बीज का विकास करता है तथा उसकी अनुकूलता को देश तथा स्थानीयता में परीक्षण करता है ।

ये किस्में परीक्षण केन्द्र से मान्य की जाती है तथा संस्तुत कर दी जाती है जिससे कृषक को अधिकतम लाभ प्राप्त हो सकें ।


अनुसन्धान केन्द्र, सर्वदा इस स्थिति में नहीं रहते है कि किसानों की आवश्यकतानुसार उन्नत शुद्ध बीज दे सके क्योंकि सुविधायें तथा कार्य सीमित होता है ।

व्यवस्थित कार्यक्रम न होने के कारण अनुसन्धान केन्द्र से दिया गया बीज कुछ वर्षों तक ही शुद्ध रह पाता है क्योंकि उसमें मिश्रण, प्राकृतिक संकरण तथा उत्परिवर्तन से अशुद्धताये आ जाती हैं ।


इन परिस्थितियों में बीज अधिकतम किसानों की मांग के अनुकूल बढ़ तो जाता है परन्तु उसकी आनुवंशिक शुद्धता तथा सामान्य विशेषताये जो कि उन्नत किस्म में थी, लगभग बदल जाती है तथा उसकी उत्तमता उपयुक्त नहीं रहती है ।

जिससे कृषकों को पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं होता है ।


संयुक्त राज्य अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा तथा अधिकतर यूरोप के देशों में उत्तम किस्मों के बीजों की आनुवंशिक शुद्धता बनाये रखने के लिये, बीज का वर्धन, अनुरक्षण तथा वितरण नियमित तरीके से किया जाता है तथा बीज सर्टिफिकेशन सेवाये स्थापित की गई हैं ।


नई किस्म को विकसित करने तथा उपयोग में लाने तक का उत्तरदायित्व, प्रजनन ( breeding ) सर्टिफिकेशन तथा व्यावसायिक बीज वर्धन पर है ।


डॉ० ए० ए० जॉनसन के विचार के अनुसार,

"बीज उत्पादन, वर्धन तथा वितरण वह विधि है जिससे बीज प्रयोगकर्ताओं को यह विश्वास होता है कि उन्हें उसे उत्तम किस्म को उगाने से अन्त तक बीज की उत्तमता की रक्षा होने से मूल्य मिलेगा, बीज शुद्ध है तथा उत्तम गुण तथा आपेक्षित हानिकारक बीमारियों से रहित है ।"


उत्तम बीज की आनुवंशिकता ( heredity ) का ज्ञान रहता है तथा अनुसन्धान केन्द्र के रिकार्डस में, उसकी वंशवली को देखा जा सकता है तथा खेत के बीज का मौलिक बीज निरीक्षण द्वारा अपेक्षा की जा सकती है ।

इसके द्वारा कृषक को उत्तम तथा शुद्ध बीज प्राप्त होता है ।


अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के अनुसार बीज प्रमाणीकरण ( Seed certification ) के ध्येय को संक्षेप में निम्न प्रकार से माना जा सकता है -


"बीज प्रमाणीकरण का ध्येय जनता को फसलों की उत्तम किस्मों का उच्च गुणता का बीज तथा प्रर्वधन पदार्थ प्रदान करना है जिसके उगाने एवं वितरण में पूर्ण आनुवंशिक सर्वसमिका रखी गई हों । केवल वे किस्में जिनका जर्मप्लाज्म उत्कृष्ट होता है उनका ही प्रमाणीकरण किया जाता है । प्रमाणीकृत बीज की उपजातीय शुद्धता ( Varietal purity ) तथा अंकुरण क्षमता उत्तम होती है ।"


बीज प्रमाणीकरण से कृषको को अधिक मात्रा में आनुवंशिक रूप से शुद्ध बीज उचित मूल्य पर शीघ्रातिशीघ्र प्रदान किया जाता है ।

संसार के अधिकतर देशों में खाद्य पदार्थों का अभाव है ।


अत: उन्नत बीजों का अत्याकि महत्व है, क्योकि उन्नत बीजों से फसल उत्पादकता बढ़ सकती है ।

अब देश में गेहूँ, चावल, मक्का, कपास, तिलहन, दलहन एवं शाक - सब्जियों के बीजों की मांग आपूर्ति के अनुपात में अधिक है ।


अत : उन्नत बीजों को अत्यधिक कमी है ।

स्पष्ट: भारत मे बीजोत्पादन के व्यवसाय के लिए विशाल एवं व्यापक क्षेत्र विद्यमान है ।

उन्नतशील बीजो के महत्व के परीक्षेप में कई राज्यों ने उन्नत बीजों के प्रयोग तथा गुणवत्ता के नियमन के लिए, अधिनियम बनाये है ।


कृषि के उद्देश्य से विक्रय के लिये किसी भी प्रकार या किस्म के बीज की गुणवत्ता के नियमन हेतु संसद ने 1966 में बीज अधिनियम पारित किया जो कि एक अक्टूबर 1969 में लागू हुआ ।


अधिनियम में उन्नत किस्मो के बीजो के प्रमाणीकरण का प्रावधान है तथा बोने के लिए बोज के व्यवसायिक विक्रय पर नियन्त्रण का प्रावधान है ।


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भारत में बीज उत्पादन का महत्व (Importance of seed production in india)

 

भारत में बीज उत्पादन एवं बीज उत्पादन का महत्व
भारत में बीज उत्पादन का महत्व


भारत मे बीज उत्पादन की महत्व के दृष्टिकोण से भारत सरकार ने राष्ट्रीय बीज निगम ( N.S.C. - National Seeds Corporation ) की सन् 1963 में स्थापना की ।

 

इसका प्राथमिक उद्देश्य सुदृढ़ बीज उद्योग का प्रबन्ध एवं विकास करना है ।

मौलिक रूप से इसका ध्येय आधार बीज का उत्पादन, अनुरक्षण एवं वितरण संस्थान के रूप में कार्य करना है ।


अब इसके मुख्य कार्य निम्नलिखित है -

1. कृषि बीजो का उत्पादन संसाधन, सुखाना, अनुरक्षण, वितरण एवं उपयुक्त स्थानों पर परिवहन करना ।

2. व्यक्तियों सहकारी समितियो, निगमों तथा सरकारी एजेन्सियों से समझौता करके कृषि बीजों का उत्पादन, संसाधन, सुखाना, अनुरक्षण वितरण तथा परिवहन करना ।

3. बीजों की गुणवत्ता के अनुरक्षण के लिए निरीक्षण करना तथा बीजोत्पादन के प्रत्येक स्तर पर नियन्त्रण रखना ।

4. भारत में कृषि उत्थान के लिए प्रत्येक प्रकार के आवश्यक बीजों का परिरक्षण ( Preservation ), अनुरक्षण भंडारण एवं वितरण करना ।


केन्द्रीय रूप से, भारत में अनुसन्धान एवं प्रजनन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् द्वारा नियंत्रित अनुसंधान संस्थानों तथा कृषि विश्व विद्यालयों द्वारा सम्पन्न किया जाता है ।


इनमें समन्वय स्थापित करने का उत्तरदायित्व भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ( Indian Council of Agriculture Research - ICAR ) का है ।


बीज उत्पादन प्रौद्योगिकी का क्षेत्र ( Scope of Seed Production Technology in hindi )


अनुप्रयुक्त पादप प्रजनन ( Applied Plant Breeding ) का ध्येय उत्तम किस्मों ( better varieties ) को विकसित करना है, परन्तु उन्नत किस्मों का लाभ प्रभावी होने के लिए आवश्यक है कि -

( 1 ) उन्नत किस्म के बीज का उत्पादन सम्पूर्ण अनुकूलित क्षेत्र में व्यवसायिक रूप से उगाने के लिए पर्याप्त हो ।
( 2 ) उसकी किस्मीय शुद्धता ( varietal purity ) का प्रावधान हो ।


ऐसा न करने पर उन्नत किस्म का विकास करना व्यर्थ हो सकता है ।

इन समस्याओं के समाधान के लिए संसार के अधिकतर देशों ने पादप प्रजनन के उत्पादों के नियमित रूप से वर्धन ( increase ), वितरण ( distribution ) एवं अनुरक्षण ( mainte nance ) के लिए प्रविधियों ( procedures ) का विकास किया है ।


सामान्यत: नई किस्मों के विकास तथा उपयोग की प्रविधियों के उत्तरदायित्व के तीन सम्बन्धित क्षेत्रों की पहचान की गयी है ।


ये हैं -
1. प्रजनन ( Breeding )
2. प्रमाणीकरण ( Certification )
3. व्यावसायिक बीज उत्पादन ( Commericial Seed Production )


उत्तरदायित्व के इस विभाजन में पादप प्रजनन का प्राथमिक कार्य नई किस्म को विकसित करना तथा छोटे पैमाने पर बीज का वर्धन होता है ।


प्रमाणीकरण एजेन्सी का सम्बन्ध बीज उत्पादकों को बीज प्रदान करने के क्रियात्मक नियमन से है तथा यह उत्पादन के नियमन ( regulation ) तथा विपणन ( marketing ) की व्यवस्था करता है जिससे किस्मीय शुद्धता तथा बीज गुणवत्ता के उचित मानकों को निश्चित रखा जाये ।


भारतीय बीज अधिनियम ( Indian Seed Act, 1966 )


भारतीय बीज अधिनियम वर्ष 1966 में पारित किया गया, और यह 2 अक्टूबर, 1969 से लागू है ।

इस अधिनियम का 1972 में संशोधन ( amendment ) किया गया ।


इस अधिनियम का उद्देश्य भारतवर्ष में बेचे जाने वाले बीज की गुणवत्ता को अनिवार्य चिन्हन ( compulsory labelling ) एवं ऐच्छिक प्रमाणीकरण ( voluntary certification ) के द्वारा नियंत्रित करना है ।


इसके अलावा यह अधिनियम उन निकायों एवं अधिकारियों की भी व्यवस्था करता है, जो इस अधिनियम को लागू करने के लिए आवश्यक होंगे ।


भारत में बीज उद्योग का विकास ( Development of seed Industry in India )


वर्ष 1950 के पहले भारतवर्ष में बीज उत्पादन लगभग असंगठित था ।

बीज उत्पादन का कार्य मुख्य रूप से निजी कंपनियों एवं व्यापारियों द्वारा किया जाता था, और सरकार का योगदान सीमित ही था ।


लेकिन ये सभी प्रयास बीजों की वास्तविक आवश्यकता की तुलना में बहुत ही अपर्याप्त थे ।

भारत सरकार ने वर्ष 1956-57 में एक राज्य बीज फार्म परियोजना'( State Seed Farms Project ) शुरू की ।


इस परियोजना के अंतर्गत विशेष रूप से धान्यों ( cereals ) के आधार बीज ( foundation seed ) का उत्पादन किया जाना था ।


बाद में, 1963 में, राष्ट्रीय बीज निगम ( National Seeds Corporation, NSC ) की स्थापना की गई ।

भारतीय बीज अधिनियम ( Indian Seed Act ) वर्ष 1966 में पारित किया गया ।

राष्ट्रीय बीज निगम ( NSC ) की स्थापना भारतवर्ष में बीज उद्योग के विकास में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना थी ।


बीज उद्योग पर इसके प्रभाव को निम्नलिखित आँकड़े स्पष्ट कर देते हैं : - 

वर्ष 1966-67 में कुल 3,608 टन बीज का उत्पादन किया गया था, जबकि 1984-85 में यह मात्रा 48.46 लाख टन हो गई थी ।


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