मृदा के प्रकार (types of soil in hindi) - भारत में कितने प्रकार की मृदाएं पाई जाती है

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मृदा के प्रकार (types of soil in hindi) - भारत में कितने प्रकार की मृदाएं पाई जाती है


मृदा के प्रकार - जलवायु, पैतृक पदार्थ एवं वनस्पति इत्यादि की विविधता के कारण भारत में अनेकों प्रकार की मृदाएं पाई जाती है जिनका समय-समय पर वर्गीकरण किया गया है ।

सर्वप्रथम सन् 1932 में स्कोकालस्कय रूसी वैज्ञानिक ने भारत की मृदाओं का मानचित्र तैयार किया था। इसके पश्चात् वैज्ञानिक गोविन्दराजन (1965) ने भारत की मृदाओं को 24 बृहत् वर्गों में रखा।

वैज्ञानिक राय चौधरी व गोविन्दराजन (1971) ने भारत की मृदाओं का नवीन वर्गीकरण पद्धति के आधार पर वर्गीकरण किया। सन् 1985 में National Bureau of soil survey and land use planning ने भारत का मृदा मानचित्र तैयार किया है ।

भारत में कितने प्रकार की मृदाएं पाई जाती है? | types of soil in hindi

नवीन सातवें सन्निकट वर्गीकरण के अनुसार भारत की मृदाओं को निम्नलिखित भागों में बांटा गया है।

भारत में पाई जाने वाली प्रमुख मृदाएं -

  • जलोढ़ मृदाएं ( Alluvial Soils )
  • काली (कपास) मृदाएं ( Black Cotton Soils )
  • लाल मृदाएं ( Red Soils )
  • लेटराइट ओर लेटराटिक मृदाएं ( Laterite and Lateritic Soils )
  • रेगिस्तानी (शुष्क) मृदाएं ( Derest Arid Soils )
  • वन एवं पर्वतीय मृदाएं ( Forest and Hill Soils )
  • पोडजोलिक मृदाएं ( Podzolic Soils )
  • केल्शियम रहित भूरी वनीय मृदाएं ( Non-calic Brown Forest Soils )
  • लवण प्रभावित मृदाएं ( Salt Affceted Soils )
  • पीट और दलदली मृदाएं ( Peat and Marsh Soils )


1. जलोढ़ मृदा क्या है? | alluvial soil in hindi

इन मृदाओं का विकास विभिन्न नदियों द्वारा बहाकर लाये गये जलोढ़ (alluvium in hindi) के जमा होने से होता है। इस लिए इन्हें जलोढ़ मृदायें कहते हैं। इन मृदाओं का पैतृक पदार्थ नवीन उत्पत्ति (recent origin) का होता है जो विभिन्न नदियों द्वारा अपरदित उत्पादन (erosion product) के जमा होने से बनता है, जबकि तटीय जलोढ़ (coastal alluvium) समुद्री लहरों द्वारा जमा होता है एवं डेल्टा जलोड़ (deltic alluvium) नदियों द्वारा बहाकर लाये गये पदार्थ का उनके मुहाने पर जमा होने से बनता है। इन मृदाओं में प्रोफाईल का विकास बहुत कम (A-C से A(B)-C) पाया जाता है। ये सबसे महत्त्वपूर्ण एवं उपजाऊ मृदायें होती हैं ।

जलोढ़ मृदा का  वितरण -

ये मृदायें पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, पश्चिमी बंगाल, आसाम और समुद्र तटीय क्षेत्रों में पायी जाती है । इनका क्षेत्रफल 75 मिलियन हैक्टेयर केवल सिन्धु व गंगा के मैदानों और ब्रह्मपुत्र घाटी में पाया जाता है।

जलोढ़ मृदाएं की प्रमुख विशेषताएं -

  • सामान्यतः इन मृदाओं के रंग व कणाकार में विभिन्नता पायी जाती है जो उनके पैतृक पदार्थ के स्रोत एवं जमा होने के स्थान पर निर्भर करते हैं।
  • इनकी प्रकृति परतदार (stratified) होती है और जो इनके कणाकार द्वारा प्रतिविम्बित होती है तथा इनमें कार्बनिक पदार्थ का अनियमित वितरण पाया जाता है।
  • ये सामान्यतः गहरी से बहुत गहरी होती है।
  • कार्बनिक पदार्थ के स्रोत एवं जलवायु के आधार पर ये सामान्य कैल्शियम युक्त, क्षारीय एवं अम्लीय होती है।
  • इनके प्रोफाईल विकास में भिन्नता पायी जाती है, जो कम विकसित (A-C) से लेकर अच्छा विकसित (A-B-C) तक होता है, जो क्षेत्र की जलवायु एवं जलोढ़ की उम्र पर निर्भर करता है।
  • ये मृदायें स्वभाविक रूप से पोषक तत्वों की धनी होती है। सामान्यतः इनमें फास्फोरस व पोटेशियम की मात्रा संतोषजनक तथा नाइट्रोजन व कार्बनिक पदार्थ की कमी पायी जाती है।
  • इनकी pH सामान्यतः क्षारीय होती है लेकिन अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों (> 2000 मिमी०) में अम्लीय होती है।
  • जिन क्षेत्रों में कृत्रिम सिंचाई की अधिकता या भूमिगत जल क्षारीय होता है वहाँ पर ये मृदायें लवणीयता व क्षारीयता उन्मुख होती है।


जलोढ़ मृदा का वर्गीकरण -

इन मृदाओं को मुख्य रूप से दो वर्गों में विभक्त करते हैं-

  • नयी जलोढ़ (Recent alluvial) – इनको खादर मृदायें भी कहते हैं। इनमें कणों का आकार बड़ा, हल्का रंग, कम कंकड़ तथा प्रोफाईल का विकास कम पाया जाता है। नये वर्गीकरण (soil taxonomy) में इनको इन्टीसॉल (entisol) गण में रखते हैं।
  • पुरानी जलोढ़ (Old alluvial) – इनको भांगर मृदायें कहते हैं। इनमें क्ले की अधिकता, गहरा रंग, अधिक कंकड़ पाये जाते हैं। नये वर्गीकरण के अनुसार इनको इन्सेप्टीसॉल (inceptisol) गण में रखते हैं।

जलोढ़ मृदाएं की क्षमता -

खेती के लिए बहुत अच्छी मृदायें हैं इनमें गेहूं, धान, गन्ना, जूट, मक्का, मूँगफली, आलू, बरसीम, सूरजमुखी, मक्का आदि की खेती की जा सकती है।

जलोढ़ मृदाएं की बाध्यताएं -

  • सिंचाई जल का अनुचित प्रयोग करने पर ये मृदायें लवणीयता एवं क्षारीयता की तरफ उन्मुख हो जाती हैं। 
  • इन मृदाओं में नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा ह्यूमस की कमी पायी जाती है इसलिए उचित मात्रा में खाद एवं उर्वरकों की आवश्यकता होती है।
  • सघन खेती के कारण इन मृदाओं में दूसरी पीढ़ी की समस्यायें जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों (सल्फर, जिंक) की कमी, कुछ क्षेत्रों में भूमिगत जल के स्तर का घटना और इसका बढ़ना अन्य क्षेत्रों में लवणीकरण का कारण है।


काली मृदा (काली कपासी मृदा) किसे कहते हैं? | black soil in hindi

इनका रंग गहरा होने के कारण इनको काली मृदायें कहते है जो सूखने पर सख्त तथा गीली होने पर चिपचिपी एवं कोमल होती है। ये मृदायें अमेरिका की ग्रुमोसोल्स (gruinolos) के समान होती है। काले रंग की दृष्टि से ये रूस की चनोंजेम (chernozem) तथा अमेरिका की पैरेरी (prairie) मृदाओं के समान होती है, लेकिन भौतिक रसायनिक गुणों विशेषतः कणाकार, संरचना, सुघटयता, क्ले खनिजों आदि गुणों में उनसे भिन्न होती है। इन मृदाओं का विकास अर्द्धशुष्क एवं अर्द्ध-आई जलवायु में दो तरह की पैतृक चट्टानों जैसे बेसालट एवं अन्य क्षारीय रूपान्तरित ज्वालामुखी चट्टानों तथा चूना और सोड़ा युक्त ग्रेनाइट, नीम एवं शिष्ट चट्टानों द्वारा होता है।

काली मृदा का वितरण –

ये मृदायें विश्व के मध्य उष्ण (Inter troprical) एवं उपउष्ण (subtropical) क्षेत्रों में प्रमुखता से पायी जाती है जो विशेषतः अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, दक्षिण-पश्चिम अमेरिका तथा भारत में पायी जाती है। भारत में ये मृदायें महाराष्ट्र, पश्चिमी मध्य प्रदेश, गुजरात एवं आन्ध्र प्रदेश के कुछ भागों में, कर्नाटक तथा तमिलनाडू आदि राज्यों में पाई जाती है ।

काली मृदा की विशेषताएं -

  • इन मृदाओं में क्ले की अधिक मात्रा होती है, जो 30 से 80 प्रतिशत तक होती है।
  • चूना युक्त होने के कारण इनका pH मान 7.8 से 8.7 तक होता है, जो क्षारीय दशाओं में 9.5 तक जा सकता है।
  • इनमें इस्मैक्टाईट (smectite) खनिज अधिक होने के कारण इनकी धनायन विनिमय क्षमता (CEC) 30-60 cmol होती है।
  • इनकी जलधारण क्षमता (150-250 मिमी०/मी०) एवं पोषक धारण क्षमता अधिक होती है। इनकी जल धारण क्षमता अधिक होने पर भी जल का एक बड़ा भाग पौधों की वृद्धि के लिए अनउपलब्ध होता है क्योंकि ये प्रमुख क्ले खनिज (smectite) द्वारा दृढ़ता से पकड़ा होता है।
  • क्ले की अधिक मात्रा तथा इस्मैक्टाईट खनिज के कारण इनकी पारगम्यता कम होती है जिससे इनमें जल निकास की समस्या रहती है।
  • चर्निंग (churning) के कारण ये मृदायें निक्षालन (eluviation) एवं निक्षेपण (illuviation) प्रक्रम प्रदर्शित नहीं करती है।
  • फैलने सुकड़ने की प्रकृति के कारण इनका आभासी घनत्व (1.5 से 1.8 Mg m) अधिक होता है।
  • इनका काला रंग क्ले ह्यूमस जटिल तथा/अथवा टिटैनिफैरस मैग्नेटाईट (titaniferous magnetite) खनिज की उपस्थिति के कारण होता है।
  • इनका बहुत अधिक चिपचिपी एवं सुघटय होने के कारण इनमें कृषि करना मुश्किल होता है।
  • इनके फैलने सुकड़ने की प्रकृति के कारण ये कई प्रकार की समस्यायें उत्पन्न करती हैं; जैसे-फर्श का सुकड़ना, भवनों में दरारें पड़ना, पानी एवं गैस पाईप लाईन का मुड़ना या टूटना, बिजली एवं टेलिफोन के खम्बो का झुकना, पेड़ों का झुकना या उखड़ जाना आदि।

काली मृदा का वर्गीकरण –

उत्पत्ति पद्धति (genetic system) के अनुसार इन मृदाओं को परिवर्तनशील (intrazonal) (ग्रुमोसोल्स) तथा असामान्य (azonal) (रिगोसोल्स, जलोढ़ मृदाओं) गणों में वर्गीकृत करते हैं। नवीन वर्गीकरण पद्धति (soil taxonomy) के अनुसार मध्यम एवं गहरी काली मृदायें वर्टीसोल तथा उथली या कम गहरी काली मृदाओं को एन्टीसोल्स या इन्सेप्टीसोल्स गण में इनके प्रोफाइल विकास के आधार पर वर्गीकृत करते हैं।

काली मृदा की क्षमता –

स्वभाविक रूप से ये मृदायें बहुत उपजाऊ होती है। असिंचित क्षेत्रों में इनमें कपास, ज्वार, मिलेट, सोयाबीन, अरहर (pigeon pea) आदि जबकि सिंचित क्षेत्रों में, अन्य फसले जैसे गन्ना, गेहूँ एवं नीबू वर्गीय फसलें होती है।

काली मृदा की बाध्यताएँ -

इन मृदाओं की मुख्य विवशता काम करने योग्य नमी का कम विस्तार, कम अन्तःस्यंदन (infiltration) दर, खराब जल निकास, पौधों की वृद्धि के लिए कम जल एवं पोषक तत्वों की पूर्ति तथा नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं सल्फर की कम उपलब्धता आदि है। चूनायुक्त प्रकृति के कारण इनमें फॉस्फोरस एवं सूक्ष्म तत्वों की कमी पायी जाती है। ये फैलने सुकड़ने के गुण के कारण भवन निर्माण, पाईप लाईन बिछाने, बिजली एवं टेलिफोन के खम्बों को खड़े करने आदि कार्यों के लिए अनुपयुक्त होती है।


लाल मृदायें किसे कहा जाता है? | red soils in hindi

लाल नाम उन मृदाओं को दिया गया है जिनमें सैक्सवी ऑक्साइड्स (sesquioxides) की अधिकता होती है। इन मृदाओं का निर्माण आर्चियन (archean) उत्पत्ति वाली चट्टानों (granite, Gneiss) द्वारा और अच्छे जल निकास, स्थिर ऊँची जमीनी रूपों (stable higher land forms), अर्द्धशुष्क से आर्द्र अर्द्धउष्ण (subtropical) जलवायु की दशाओं में होता है। इन अवस्थाओं में, परिमित रूप से अपक्षय तीव्र होता है जो अकैल्शिकरण एवं क्ले को गतिमान कर B संस्तर को क्ले का धनी (enriched) बना देता है। कुछ अपक्षय पदार्थ लीचिंग जल द्वारा बहा कर नीचे चले जाते हैं और कम गतिमान तत्व जैसे सिलिका, आयरन एवं एल्युमिना मृदा की ऊपरी सतह में रह जाते हैं। ऑक्सीकृत दशाओं में आयरन एवं एल्युमिनियम सैक्सवीऑक्साइड्स (Fe एवं AI ऑक्साइड) बनाते हैं जिससे इन मृदाओं का रंग लाल हो जाता है।

लाल मृदा का वितरण –

भारत में लाल मृदायें दक्षिणी प्रायद्वीप क्षेत्रों में पायी जाती है, जो मुख्य रूप से आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उड़ीसा एवं गोवा ओर उत्तर पूर्वी भारत में पायी जाती है। ये लगभग 70 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र में फैली हुई है।

लाल मृदा के विशिष्ट गुण -

  • इन मृदाओं का लाल से पीला रंग मृदा कणों पर फैरिक ऑक्साइड की परत चढ़ी होने के कारण होता है न कि अधिक आयरन के कारण। जब फैरिक ऑक्साइड हेमेटाइट (haematite) या निर्जल FeO के रूप में होता है तो ये लाल रंग की ओर जब फैरिक ऑक्साइड लिमोनाईट (limonite) या जलीय रूप (hydrated form) में होता है तो पीले रंग की होती है।
  • इनके कणाकार में बहुत विभिन्नता पायी जाती है जो दोमट बलुई से भारी क्ले होता है लेकिन सामान्यतः ये दोमट से क्ले दोमट होती है।
  • ये कम गहरी से बहुत गहरी होती है। ये ऊपरी भूमियों (uplands) में कंकरीली एवं कम उर्वरता वाली तथा समतल स्थानों एवं घाटी में गहरी और उपजाऊ होती है।
  • ये अभिक्रिया में सामान्यतः उदासीन से अम्लीय होती है, जो आयरन ऑक्साइडस की मात्रा पर निर्भर करती है। 5. इनका सिलिका:सैक्सवीऑक्साइडस अनुपात 2.5 से 3.0 के बीच होता है। सामान्यतः इनमें आयरन एवं एल्युमिनियम की मात्रा ज्यादा (25-50%) होती है।
  • इनकी धनायन विनिमय क्षमता एवं क्षार संतृप्ति (base saturation) काली या जलोढ़ मृदाओं से कम होती है। कुछ लाल मृदायें जो लेटराइट मृदाओं के साथ पायी जाती है का क्षार विनिमय कम होता है। इनकी धनायन विनिमय क्षमता 35 से 50 सेन्टीमोल (P+) प्रति किग्रा० मृदा होती है।
  • इनमें सामान्यतः नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस की कमी के साथ कार्बनिक पदार्थ एवं चूने की मात्रा भी कम पायी जाती है। 8. इनका कार्बन: नाइट्रोजन अनुपात लगभग 10: 1 होता है।
  • इनकी अधोसतह (subsurface) क्ले के संचय से सघन (compacted) हो जाती है जिससे जल अधिशोषण क्षमता एवं पोषक अधिशोषण क्षमता बढ़ जाती है लेकिन यह जड़ों के विस्तार में बाधा उत्पन्न करती है।
  • इन मृदाओं में केओलिनाइट की सामान्य उपस्थिति के साथ इलाईट एवं क्लोराइट मुख्य खनिज होते हैं।


लाल मृदा का वर्गीकरण -

पूर्व वर्गीकरण पद्धति में इनको लाल दोमट (red loamy), लाल बलुई (red sandy) और लाल एवं पीली मृदाओं में वर्गीकृत किया गया है।

नवीन मृदा वर्गीकरण नद्धति के अनुसार इनको निम्न गणों में वर्गीकृत किया गया है —

  • एल्फीसोल्स - क्षार की अधिकता
  • अल्टीसोल्स - पूर्ण विकसित मृदा, कम क्षार संतृप्ति
  • एन्टीसोल्स - कम विकसित मृदा एवं कठोर परत
  • इन्सैप्टीसोल्स - परिमित रूप से (moderately) विकसित

लाल मृदा की क्षमता –

इनका अच्छी तरह से प्रबन्ध करने पर इनमें बहुत सी फसले जैसे- धान, मूंगफली, मक्का, सोयाबीन अरहर (Pigeonpea), मूंग (Green gram), जूट, चाय, काजू, कोका, अंगूर, केला, पपीता, आम आदि उगायी जा सकती है।

लाल मृदा की बाध्यताएँ —

  • इनकी सतह बहुत जल्दी कठोर एवं सख्त हो जाती है।
  • पहाड़ों एवं ढालदार स्थानों पर इनकी गहराई बहुत कम होती है।
  • इनमें जल अवशोषण एवं पोषक अवशोषण क्षमता कम तथा अधिक अपरदन, अत्यधिक जल निकास (excessive drainage) एवं अपधावन (surface runoff) होता है।
  • इनकी अधोसतह सम्मन होने के कारण जड़ों के विकास को अवरुद्ध करती है।
  • प्राकृतिक रूप से इनमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, कैल्शियम, जिंक एवं सल्फर पोषक तत्वों की कमी पायी जाती है।


लेटराइट और लेटराइटिक मृदायें | laterite and lateritic soil in hindi

लेटराइट शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम बुचनन (Buchanan, 1807) ने दक्षिण भारत की मालाबार पहाड़ियों में पाये गये अत्यधिक आयरन युक्त (ferruginous), फफोलेदार (vesicular) एवं परतहीन (unstraitified) पदार्थ के लिये किया था। ये अत्यधिक अपक्षयित, आयरन एवं एल्युमिनियम से भरपूर तथा क्षार एवं प्राथमिक खनिजों से रहित मृदा होती है। एक आदर्श लेटराइट उष्ण जलवायु में एकान्तर भीगने एवं सूखने से बनती है।

मानसूनी जलवायु में अधिक तापक्रम पर अपक्षय के दौरान सिलिका युक्त पदार्थ पूरी तरह से जल के साथ घुलकर नीचे चला जाता है और सैक्सवीऑक्साइड्स ऊपर बचा रह जाता है। सुखने पर ये अपरिवर्तनीय आयरन एवं एल्युमिनियम ऑक्साइड्स में बदल जाता है। इस तरह से उत्पन्न मृदा सैक्सवी ऑक्साइड्स से भरपूर, क्षार एवं प्राथमिक सिलिकेट खनिजों से रहित, कठोर या कठोर होने की क्षमता वाली, ईंट की तरह की होती है। यह एक सघन से फफोलेदार चट्टान की तरह के पदार्थ आयरन एवं एल्युमिनियम हाइड्रेटिड ऑक्साइड्स के साथ कम मात्रा में उपस्थित मैगनीज ऑक्साइड्स एवं टिटेनिया (titania) के मिश्रण से बनी होती है।

लेटराइटिक मृदाओं का निर्माण भी लगभग उसी प्रकार की जलवायु में होता है जिस तरह की जलवायु में लेटराइट मृदायें उत्पन्न होती है लेकिन इनको एकान्तर भीगने एवं सुखने की आवश्यकता नहीं होती है और न ही भूमिगत जलस्तर सतह के नजदीक हो ।

लेटराइट मृदा का वितरण -

लेटराइट और लेटराइटिक मृदायें सामान्यतः उड़ीसा, केरल, तमिलनाडू आदि राज्यों में पहाड़ों की चोटियों एवं पठारों पर पायी जाती है। जो लगभग 40 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल में फैली हुई है। लेटराइट मृदायें बहुत कम पायी जाती है जबकि लेटराइटिक मृदायें विस्तृत रूप से पायी जाती है। ये मृदायें विस्तृत रूप से महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू एवं उत्तर पूर्वी राज्यों में पायी जाती है। ये लगभग 25 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल में फैली हुई है।

लेटराइट मृदाओं के विशिष्ट गुण -

  • लेटराइट मृदाओं का रंग लाल होता है जिसकी तीव्रता B-संस्तर में सबसे अधिक पायी जाती है जो प्रोफाईल की गहराई के साथ घटती है।
  • ये अत्यधिक अपक्षयित मृदायें है और अपक्षय की गहराई कुछ मीटर तक होती है।
  • इन मृदाओं में अधिक क्ले अंश (B संस्तर में) पाया जाता है जिसका कारण निक्षेपण (illuviation) नहीं बल्कि अपक्षयित खनिजों का परिवर्तन है।
  • इनमें क्षार एवं सिलिका लीचिंग द्वारा नीचे चले जाते हैं जबकि ऊपरी संस्तर में सैक्सवी ऑक्साइड्स का संचय होने से मृदा अम्लीय हो जाती है।
  • इनमें सिलिका : सैक्सवीऑक्साइड्स अनुपात कम (2.0 से कम) होता है।
  • इन मृदाओं में प्रधान खनिज केओलिनाईट (1: 1 प्रकार) होता है।
  • इन मृदाओं में फास्फोरस की कमी होती है जिसका कारण इसका स्थिरीकरण है। इनमें अधिक अम्लता, एल्युमिनियम एवं मैंगनीज की विषाकता (Toxocity) और K, Ca, Mg, Zn एवं B पोषक तत्वों की कमी पायी जाती है।
  • आर्दश लेटराइट को फ्रैंच पद्धति में फैरेलाइटिक (ferallitic), उत्पत्ति पद्धति में लैटोसोल्स (latosols) तथा टैक्सोनोमी में आक्सीसोल्स (oxisols) कहते हैं। ये वर्ष के 2 महीने से कम समय शुष्क तथा बाकी शेष समय गीली (moist) रहती है।

इनमें निम्न विशेषताएँ पायी जाती हैं -

  • इनका वर्ण (Hue) 5 YR अथवा लाल होता है जिसका तीव्रता B-संस्तर में अधिकतम पायी जाती है।
  • ये अत्यधिक अपक्षयित मृदायें होती हैं जिनमें B-संस्तर में अधिक क्ले अपक्षयित खनिजों में परिवर्तन के कारण होता है न कि निक्षेपण के।
  • इनमें क्षार एवं सिलिका लीचिंग द्वारा निचले संस्तर में चले जाने से ऊपरी संस्तर में सैक्सवी ऑक्साइड्स की अधिकता पायी जाती है जिससे ये अम्लीय बनी रहती है। इनका सिलिका : सैक्सवी आक्साइड्स एवं सिलिका : एल्युमिना अनुपात 2 से कम तथा क्षार संतृप्ति 40% से कम होती है।
  • इनमें प्रधान खनिज केओलिनाईट होता है तथा गिब्साईट (gibbsite) उपस्थित रहता है।
  • इनकी धनायन विनिमय क्षमता कम होती है जो 16 सेन्टीमोल (P*) प्रति किग्रा० से कम होती है।

लेटिराइटिक मृदाओं को फ्रैंच पद्धति से फरसियलाइट (fersiallite), उत्पत्ति पद्धति में लैटोसोलिक (latosolic) तथा टैक्सोनोमी में अल्टीसोल्स (ultisols) कहते हैं। लेटराइट के विपरीत ये वर्ष के 4-5 महीने शुष्क तथा शेष समय गीली रहती है।

इनकी मुख्य विशेषताएँ निम्न हैं -

  • सिलिका/सैक्सीऑक्साइड्स एवं सिलिका/एल्युमिना अनुपात 2 से ज्यादा होता है।
  • क्ले खनिज केओलिनाईट (11 प्रकार) अन्य खनिज (21 प्रकार) के साथ मिश्रित अवस्था में पाया जाता है। इनमें गिब्साईट अनुपस्थित होता है।
  • इनकी क्षार संतृप्ता लेटराइट से ज्यादा होती है।

लेटराइट मृदा का वर्गीकरण -

उत्पत्ति पद्धति में लेटराइट एवं लेटराइटिक मृदाओं को पीली भूरी या लाल भूरी लेटराइटिक मृदाओं में वर्गीकृत किया गया है। जबकि टैक्सोनोमी में अधिकतर लेटराइट को ऑक्सीसोल्स (oxisols) एवं लेटराइटिक को अल्टीसोल्स (ultisols) गणों में रखा गया है। भारत में वास्तविक ऑक्सीसोल्स कहीं-कहीं पायी जाती है क्योंकि इस तरह की अधिकतर मृदायें आक्सीसोल्स के मानक कदाचित पूरा करती है।

लेटराइट मृदा की क्षमता -

भारत में निचले स्थानों की लेटराइटिक मृदाओं में धान, केला, नारियल आदि एवं उच्च स्थानों की मृदाओं में कोका, काजू चाय, काफी, रबड़ आदि की खेती होती है। इन क्षेत्रों में मुख्यतः झूम खेती की जाती है लेकिन इसका चक्र 20 या अधिक वर्षों का होता है। महाराष्ट्र के पश्चिमी घाटों में लेटराइट का उपयोग आम उगाने में होता है जहाँ पर स्थानीय स्तर पर उपलब्ध तकनीक द्वारा लेटराइटिक पदार्थ को सामान्य मृदा एवं कार्बनिक पदार्थ द्वारा बदल देते हैं।

लेटराइट मृदा की बाध्यताएँ -

इन मृदाओं में P, K, Ca, Zn, B आदि पोषक तत्वों की कमी, अत्यधिक अम्लीयता, एल्युमिनियम एवं मैंगनीज की विषाक्ता (toxocity) होती है। इनके सुधार के लिए चूने का प्रयोग व्यवहारिक नहीं है क्योंकि इन क्षेत्रों में इसकी उपलब्धता न होने के कारण उसके यातायात का खर्च बहुत अधिक आता है। शीतोष्ण क्षेत्रों में चूने के प्रयोग का लाभ उष्ण क्षेत्रों में नहीं मिलता है क्योंकि यहाँ पर क्ले की सक्रियता कम होती है। परिणाम यह सिद्ध करते हैं कि इनमें कैल्शियम का प्रयोग अम्लता दूर करने की अपेक्षा पोषक के रूप में अधिक महत्त्वपूर्ण है।


रेगिस्तानी (शुष्क ) मृदायें (Derest (Arid) Soils)

रेगिस्तानी / शुष्क नाम उस क्षेत्र की मृदाओं को दिया गया है जहाँ पर कुछ रेगिस्तानी पौधों को छोड़कर कोई अन्य वनस्पति बिना सिंचाई के नहीं होती है। ये मृदायें उन क्षेत्रों में विकसित होती है जिनका प्रतिनिधित्व एरिडिक (aridic) अथवा टोरिक (torric) नमी रेजिम करते हैं ऐसी मृदाओं को रेगिस्तानी या शुष्क मृदायें कहते हैं। ये सभी तापक्रम रेजिम जैसे कराईक (cryic), फ्रिजिड (frigid), हाईपर या मेगाथर्मिक (hyper or megathermic) में हो सकती है। इन क्षेत्रों में कम वर्षा (< 300 मिमी०) होने के कारण मृदा की सतह या सतह के पास लवण एकत्रित हो जाते हैं जिससे जिप्सिक (gypsic), कैल्शिक (calcic) या सैलिक (salic) संस्तरों का निर्माण होता है।

रेगिस्तानी मृदाओं का विकास उन क्षेत्रों में होता है जो वर्ष के अधिकतर समय शुष्क रहते हैं तथा वाष्पोत्सर्जन (evapotranspiration) की दर वर्षा से अधिक होती है। ऐसे क्षेत्रों में, प्राकृतिक वनस्पति विरल (sparse) होती है तथा केवल शुष्क भूमि के पौधे पाये जाते हैं। ऐसी दशाओं में, मृदा निर्माणकारी कारकों एवं प्रक्रमों का प्रभाव पैतृक पदार्थ से संस्तर विकसित करने की अपेक्षा सतह के पास या सतह पर लवणों को एकत्रित करने में अधिक होता है। हवा अपने साथ बलुई पदार्थ को समुद्री किनारों से उड़ाकर हवा की दिशा में ले जाकर साथ वाले क्षेत्रों की मृदा की सतह पर एक मोटी परत के रूप में जमा करती रहती है इस प्रकार वायु द्वारा इनका विस्तार होता रहता है। शुष्क जलवायु दशाओं में बलुई पदार्थ के कारण इनमें प्रोफाईल का विकास अल्प होता है।

रेगिस्तानी मृदाओं का वितरण -

गर्म एवं शुष्क क्षेत्र का एक बड़ा भाग जहाँ पर पौधे फसल पैदा करने की अवधि एक वर्ष में 60 दिन से कम है। भारत में यह क्षेत्र पश्चिमी राजस्थान, दक्षिणी- हरियाणा एवं दक्षिण-पश्चिम पंजाब के अन्तर्गत आता है जो इंडस नदी (indus river) तथा अरावली की पहाड़ियों के बीच में स्थित है । ये लगभग 29 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल में फैली हुई है। ये मृदायें अन्य प्रकार के रेगिस्तानों जैसे ठण्डा रेगिस्तान (cold desert ) उत्तर में तथा उष्ण रेगिस्तान (tropical desert) दक्षिण में से भिन्न होती है।

रेगिस्तानी मृदाओं के विशिष्ट गुण -

  • इन मृदाओं का कणाकार बुलई से महीन बुलई दोमट होता है जिसमें क्ले को मात्रा लगभग 3.5% से 10.0% से कम होती है।
  • इनका रंग हल्का पीला भूरे से गहरा पीला भूरा होता है इनकी संरचना एकल कण या कमजोर, महीन, उपकोणिय ब्लाकी (subangular blocky) होती है।
  • इनमें कैल्शियम की उपस्थिति के कारण इनका pH कम क्षारीय से मध्यम क्षारीय (7.8-9.0) होता है।
  • इनकी पोषक एवं जल अधिशोषण क्षमता कम होती है।
  • इनकी अवमृदा (subsurface) में सोडियम की मात्रा के कारण क्ले विखण्डित (disperse) हो जाती है जिससे इनकी पारगम्यता कम हो जाती है और ये अधिक नमी को रोक सकती है।
  • इनमें क्वार्टज (quartz) की अधिकता एवं जैविक क्रियाशीलता कम होने के कारण इनकी उर्वरता कम होती है तथा N, P, K, S, Zn आदि पोषक तत्वों की कमी पायी जाती है।
  • इनमें सामान्यतः लवण अधिक होते है लेकिन इनकी विषाक्ता (toxicity) नहीं पायी जाती है।
  • अत्यधिक शुष्क क्षेत्रों जैसे बीकानेर, जैसलमेर (राजस्थान में) में इनकी अवमृदा में जिप्सिक संस्तर पाया जाता है। यदि इनमें फसल उगाने के लिए सिंचाई करते हैं तो sink hole बनने की सम्भावना रहती है अतः इस तरह की मृदाओं में Sink hole के निर्माण को रोकने के लिए विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है।

रेगिस्तानी मृदाओं की क्षमता -

प्राकृतिक रूप से ये मुदायें ऊपजाऊ होती है। लेकिन पानी की कमी के कारण इनमें फसल उगाना मुश्किल होता है। सिंचाई की सुविधा होने पर इनमें एक वर्ष में दो फसले पैदा करने की क्षमता होती है। जिन क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता कम है वहाँ पर शुष्क क्षेत्रों के फल जैसे-बेर, अनार आदि उगा सकते हैं। रेत के टीलों के बीच का क्षेत्र कम अवधि की फसल बाजरा या दलहन उगाने में प्रयोग करते हैं क्योंकि इन क्षेत्रों में अतिरिक्त पानी टीलों के ढलान से बहकर (runoff) प्राप्त होता है। बारिश के मौसम में, अधिक वातावरणीय आर्द्रता एवं मध्यम तापक्रम रहने के कारण अच्छी मात्रा में चारा उत्पादन होता है, जो शुष्क / अन्य समय में पशुओं के लिए प्रयोग होता है।

रेगिस्तानी मृदाओं की बाध्यताएँ —

इन मृदाओं का अधिकतर क्षेत्र रेत के टीलों एवं ऊँचे नीचे रेतीले मैदानों से बना होता है जहाँ पानी मुख्य समस्या है। इन मृदाओं का कणाकार बुलई होने के कारण इनमें अत्यधिक अन्त:स्राव या लीचिंग एवं जलनिकास होता है अतः इनकी जल अधिशोषण एवं पोषक अधिशोषण क्षमता कम होती है। इनमें सामान्यतः नाइट्रोजन एवं फास्फोरस पोषक तत्वों की कमी पायी जाती है। सूखी रेत वायु के साथ उड़कर वायु की दिशा में साथ वाले क्षेत्रों में मोटी परत के रूप में इकट्ठा हो कर कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल कम कर देती है।


वन एवं पर्वतीय मृदायें | forest and hill soils in hindi

भारत में कुल वन क्षेत्रफल लगभग 70 मिलियन हैक्टेयर है जो कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 21.3 प्रतिशत है। मुख्य वन क्षेत्र उष्ण, पतझड़, शंकुवाकार, उष्ण सदाबहार (tropical, deciduous, coniferous, tropical evergreen) आदि से घिरा है, जो हिमाचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड, आसान, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल और अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूहों में पाया जाता है। विभिन्न क्षेत्रों में वनों के प्रकार को जलवायु की दशायें एवं वहाँ की ऊँचाई नियन्त्रित करती है जबकि मृदा प्रोफाईल के विकास को स्थलाकृति एवं वनस्पति का प्रकार नियन्त्रित करता है। विभिन्न वन क्षेत्रों में पायी जाने वाली मुख्य मृदायें हैं- भूरी वनीय एवं पोडजोल मृदायें (हिमालय में) और लाल एवं लेटराइट मृदायें (दक्षिण के पठार में)।

हिमालय की मृदाओं का निर्माण ठण्डी आर्द्र दशाओं में पातालिक (बालू पत्थर, चूना पत्थर, कोंगलोमिरेट), आग्नेय (ग्रेनाईट) एवं रूपान्तरित (नीस, शिष्ट) चट्टानों द्वारा होता है। दक्षिण पठार की मृदाओं का निर्माण उष्ण (उपउष्ण) दशाओं में आग्नेय (बेसाल्ट, ग्रेनाईट) एवं रूपान्तरित (नीस) चट्टानों द्वारा होता है।

वन क्षेत्रों में, मृदाओं का निर्माण दो प्रकार से होता है -

  • अम्लीय दशाओं में अम्लीय ह्यूमस एवं कम क्षार संतृप्ति में मृदाओं का निर्माण।
  • हल्की अम्लीय उदासीन एवं अधिक क्षार संतृप्ति में मृदाओं का निर्माण।


उत्तरी एवं उत्तर-पश्चिम हिमालय में पायी जाने वाली कुछ मुख्य मृदाओं का वर्णन निम्न प्रकार है-


1. पोडजोलिक मृदायें (Podzolic Soils)

इन मृदाओं का निर्माण अम्लीय ह्यूमस, कम क्षार संतृप्ति एवं शंकुवाकार (Coniferous) वनस्पतियों की उपस्थिति में होता है। इन मृदाओं की कुछ विशेषताएँ पोडज़ोलाइजेशन से उत्पन्न मृदाओं से मिलती है लेकिन पैतृक पदार्थ का अनुपयुक्त होना मृदा खनिज पदार्थों का असंतृप्त कार्बनिक अम्लों में न टूटना, पोडजोलाईजेशन की प्रक्रिया को सैक्सवीऑक्साइड्स के गमन तक सीमित करता है।

इसी कारण हिमालय क्षेत्र की पोडजोलिक मृदायें यूरोप की वास्तविक पोडजोल से भिन्न होती है। अतः हिमालय क्षेत्र में एक आदर्श पोडजोल मृदा का निर्माण नहीं पाया जाता है। आर्द्र क्षेत्रों (22500 मिमी० वर्षा) की कुछ मृदाओं में ह्यूमस एवं एमफस आयरन एवं एल्युमिनियम का संचय B-संस्तर में पाया जाता है यद्यपि यह आँकड़ें भी वास्तविक पोडजोल (spodosols) मृदाओं की आवश्यकताओं का पूरा नहीं करते हैं।

पोडजोलिक मृदाओं के विशिष्ट गुण –

इन क्षेत्रों में उत्पन्न पोडजोलिक मृदाओं में अग्रलिखित मुख्य विशेषताएँ होती हैं—

  • ये मध्यम अम्लीय से अधिक अम्लीय (pH 4.5-60) होती है। इनके B-संस्तर में आर्जिलिक (Bt) या कैम्बिक संस्तर पाया जाता है।
  • सामान्यतः इनमें अधिक कार्बनिक पदार्थ (2.0-3.0%) तथा कम क्षार (< 50%) होती है।
  • इनकी धनायन विनिमय क्षमता में विभिन्नता (10-15 सेन्टीमोल (P+)/किग्रा०) पायी जाती है। इनमें क्ले की मात्रा 20 से 30 प्रतिशत तक होती है।
  • इनमें P (फॉस्फोरस) की कमी पायी जाती है क्योंकि यह आयरन एवं एल्युमिनियम के साथ अवक्षेपित होकर अनुपलब्ध हो जाता है।

पोडजोलिक मृदायें का वर्गीकरण -

टैक्सोनोमी में इन मृदाओं को इन्सेप्टीसोल्स, एल्फीसोल्स एवं एन्टीसोल्स गणों में लेकिन अत्यधिक आर्द्र (Per humid) दशाओं की मृदाओं को अल्टीसोल्स में रखा गया है। ढालदार स्थानों की मृदायें इन्सैप्टीसोल्स एवं/ या एन्टीसोल्स तथा घाटी की मृदायें एल्फीसोल्स गण में आती हैं।

पोडजोलिक मृदाओं की क्षमता —

इन मृदाओं में बहुत-सी फसलें जैसे- धान, मक्का, सोयाबीन, गेहूँ आदि घाटी में तथा उद्यान एवं बागान जैसे—चाय, आलूबुखारा, सेब, नाशपाती आदि ढालदार स्थानों पर उगायी जाती है।

पोडजोलिक मृदाओं की बाध्यताएँ -

इन मृदाओं की मुख्य विवशता जल अपरदन और फॉस्फोरस की कमी है।


कैल्शियम रहित भूरी वनीय मृदायें (non-calic brown forest soils)

अन्य मृदायें, जो अर्द्ध आर्द्र से आई जलवायु एवं मिश्रित वनस्पति में पातालिक चट्टानों एवं एल्युवियम (alluvium) द्वारा विकसित होती है कैल्शियम रहित भूरी वनीय मृदायें है। इनके निर्माण में जलवायु (समान रूप से वितरित लगभग 1000 मिमी० वर्षा), स्थलाकृति एवं वनस्पति महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। इन मृदाओं में सामान्यतः एक मौलिक संस्तर (घाटी की स्थिर सतह) या एक आक्रिक संस्तर (ढालो पर ) कैम्बिक के साथ या एक आर्जिलिक (Bt) संस्तर (अवमृदा में) पाया जाता है। इस तरह की मृदायें कार्बनिक पदार्थ की धनी तथा उच्च क्षार संतृप्ति वाली होती है।

कैल्शियम रहित भूरी वनीय मृदाओं के विशिष्ट गुण -

  • ये मृदायें घाटी में गहरी तथा ढलानों पर उथली होती है।
  • ये हल्की अम्लीय से उदासीन अभिक्रिया (pH 6.0-7.0) की होती है। अर्द्ध आई दशाओं में कैल्शियम युक्त मृदाओं का pH लगभग 8.2 होता है।
  • इनके ऊपरी संस्तर में कार्बनिक पदार्थ मध्यम से अधिक (2.0-3.0%) मात्रा में होता है जो गहराई बढ़ने से साथ घटता है। इनमें जैविक सक्रियता अधिक पायी जाती है।
  • इनकी धनायन विनिमय क्षमता मध्यम (15-20 सेन्टीमोल (P+)/kg. तथा विनिमय जटिल क्षारों से लगभग संतृप्त (70-80%) होती है ।
  • सामान्यतः इन मृदाओं में मौलिक या मौलिक की तरह का आक्रिक सतह संस्तर जिसके नीचे कैम्बिक (या एक आर्जिलिक) B-संस्तर पाया जाता है।

कैल्शियम रहित भूरी वनीय मृदाओं का वर्गीकरण -

उत्पत्ति पद्धति में भूरी वनीय तथा कैल्शियम रहित भूरी वनीय मृदायें क्षेत्रीय (zonal) गण में आती है। जबकि टैक्सोनोमी में स्थिर सतह वाली इन्सेप्टीसोल्स एवं मोलिसोल्स तथा अपरदित या बालदार स्थानों की मुदायें एन्टीसोल्स गणों में आती है। स्थालाकृति इन मृदाओं की उत्पत्ति एवं विकास में महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। उत्तर की तरफ ढाल वाली मृदाये एल्फीसोल्स एवं इन्सैप्टीसोल्स में तथा दक्षिण की तरफ ढाल वाली मृदायें मोलिसोल्स एवं इन्सेप्टीसोल्स गणों में आती है।

कैल्शियम रहित भूरी वनीय मृदाओं की क्षमता -

ये मृदायें बहुत उपजाऊ होती है। इनमें कृषि एवं बागानों वाली फसले जैसे धान, मक्का, सोयाबीन, सेव, बादाम, नाशपाती आदि उगाने की अच्छी क्षमता होती है। हिमालय का कुल्लु क्षेत्र सेब की खेती के लिए जाना जाता है। अधिक ढाल वाली भूमियों को प्राकृतिक वनों के अन्तर्गत रखना चाहिए।


लवणीय मृदायें क्या है? | salt affceted soils in hindi

लवण प्रभावित मृदाये वे मृदायें हैं जिनमें घुलनशील लवणों का संचय या विनिमय जटिल पर अधिक मात्रा में सोडियम होता है। जिससे अधिकतर पौधों की वृद्धि कम हो जाती हैं। ये मृदायें शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पायी जाती है। जब ये दूसरी प्रमुख क्षेत्रीय मृदाओं के साथ बिखरी (scattered) पायी जाती है तो अन्तः क्षेत्रीय (intrazonal) मृदायें कहलाती है।

सिन्धु-गंगा के मैदानों की लवण प्रभावित मृदाये निचले स्थानों पर पायी जाती है जहाँ पर अपक्षयित पदार्थ मानसून के दौरान सतह अपवाहन (surface runoff) द्वारा इकट्ठा हो जाता है। मानसून से पूर्व, पानी के वाष्प के रूप में उड़ जाने से मृदा घोल सान्द्र हो जाता है। जिसके परिणामस्वरूप सोडियम अधिशोषण अनुपात (sodium adsorption ratio) बढ़ जाता है और जिससे विनिमयशील सोडियम प्रतिशत (exchangeable sodium percentage) एवं PH बढ़ जाती है। अधिक pH एवं तापक्रम पर विस्थापित कैल्शियम, कैल्शियम कार्बोनेट के रूप में अवक्षेपित हो जाता है। इस प्रक्रिया के दशकों तक बार-बार होने के परिणामस्वरूप क्षारीय मृदाओं (sodic Soils) का निर्माण होता है।

इन क्षेत्रों में वर्षा कम और अत्यधिक वाष्पीकरण होने के कारण सतह पर उपस्थित लवणों का निक्षालन नहीं हो पाता है। इसके विपरीत जल के केशिका उन्नयन द्वारा सतह पर पहुँचकर वाष्प बनकर उड़ जाने के कारण मृदा सतह पर लवणों की मात्रा में वृद्धि हो जाती। है। लवणयुक्त जल द्वारा सिंचाई करने पर भी लवणीकरण की क्रिया होती है जिसके परिणामस्वरूप सैलिक (salic) संस्तर का निर्माण होता है। इस प्रक्रिया द्वारा उपजाऊ भूमि निम्नतर (degraded) लवणीय भूमि में बदल जाती है।

लवणीय मृदा का वितरण -

भारत में ये मुदायें लगभग 10 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल में पायी जाती है। इनका मुख्य भाग लगभग 7 मिलियन हैक्टेयर जो सिन्धु गंगा के मैदानों और दक्षिण के पठार

(तटिय) क्षेत्रों में पाया जाता है क्षारीय (sodic) है। जो मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा, उत्तर श, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात आदि राज्यों में पाया जाता है। शेष लगभग 30 निशत भाग शुष्क एवं तटीय क्षेत्रों में लवणीय (saline) है ।

लवणीय मृदा की विशेषताएं -

  • ये मृदायें लवणीय से अलवणीय क्षारीय होती है। समुद्र तटीय क्षेत्रों मुख्य रूप से लवणीय मृदायें पायी जाती हैं जिनमें -
  • सोडियम, कैल्शियम एवं मैग्नीशियम के क्लोराइड्स एवं सल्फेट के घुलनशील लवणों की अधिक मात्रा (EC > 4 ds/m) पायी जाती है। इनमें विभिन्नता वर्षा, भौम जलस्तर तथा वाष्पोत्सर्जन पर निर्भर करती है।
  • कम विनिमयशील सोडियम प्रतिशत (< 15% ESP) और कैल्शियम कार्बोनेट की उपस्थिति के कारण इनकी pH 8.4 तक हो सकती है।

सिन्धु-गंगा के मैदानों की लवणीय क्षारीय मृदाओं में -

  • सतह पर अधिक मात्रा में घुलनशील लवण उपस्थित होते हैं जिसकी ECe 10 से 100 ds/m के बीच होती है।
  • अधिक विनिमयशील सोडियम प्रतिशत (40%)
  • अधिक pH मान (9.0 से 10.2)
  • खराब जल निकास के कारण भूरा रंग
  • सतह की संरचना प्लेटी तथा अवमृदा में ब्लाकी संरचना पायी जाती है। जबकि इनमें एक आदर्श क्षारीय मृदा की स्तम्भीय संरचना की कमी पायी जाती है।
  • B-संस्तर सघन होने के कारण अन्तःस्यंदन (infiltration) एवं पारगम्यता कम होती है। संरचना का पिउणपिण्डन (deflocculation) एवं क्ले के स्थानांतरण द्वारा रन्ध्रावकाश (pore space) बन्द हो जाते हैं।

उत्तर प्रदेश में, इन मृदाओं में सोडियम के कार्बोनेट एवं बाइकार्बोनेट लवणों के कारण में अत्यधिक क्षारीय होती है। जबकि पंजाब एवं हरियाणा में, इनमें इसके अलावा सोडियम के क्लोराइड, सल्फेट एवं बाई-कार्बेनेट लवण इनकी सतह पर पाये जाते हैं।

लवणीय मृदा का वर्गीकरण -

भारत में, लवण प्रभावित मृदाओं की पहचान बहुत पुराने समय (2500 BC) से है तब इन्हें ऊसर नाम से जाना जाता था। उत्पत्ति पद्धति में, इनको सोलनचक एवं सोलोनेज (solonchaks and solonetz) में वर्गीकृत किया गया है। ये मृदायें तीन विभिन्न वर्गों में वर्गीकृत की गयी है।

भूमला और अबरोल (1970) ने लवण प्रभावित मृदाओं को सिर्फ दो वर्गों लवणीय एवं क्षारीय में वर्गीकृत किया। इनके अनुसार लवणीय क्षारीय मृदायें, क्षारीय मृदाओं की तरह व्यवहार करती है अतः इनको क्षारीय मृदाओं में वर्गीकृत करना चाहिए। टैक्सोनोमी के अनुसार इनको एक या अधिक निम्न गणों में रखते हैं -
निदान सूचक संस्तर के प्रकार के आधार पर - एरीडिसोल्स
एक्विक नमी रेजिम के आधार पर - एल्फिसोल्स
नमी रेजिम के आधार पर - एन्सेप्टीसोल्स

लवणीय मृदा का सुधार -

सिन्धु-गंगा के मैदानों की लवण प्रभावित मृदायें सामान्यतः क्षारीय होती है। जिनका सुधार जिप्सम को सुधारक के रूप में प्रयोग करने से होता है। इसके अलावा अन्य सुधारक जैसे कैल्शियम क्लोराइड, सल्फर, आयरन सल्फेट, आयरन पाइराईट आदि का प्रयाग भी इनके सुधार में होता है।

इनके सुधार में मुख्य उद्देश्य विनिमयशील सोडियम की मात्रा को कम करना एवं मुक्त सोडियम का निक्षालन (leaching) होता है। इन मृदाओं की मुख्य समस्या इनकी पारगम्यता है जिसके कारण सुधारक मिलाने और उसके बाद लीचिंग में कठिनाई होती है। इनमें जल निकास तंत्र की स्थापना न केवल अनआर्थिक है बल्कि खराब पारगम्यता के कारण असफल है।

(1 मी० मृदा का भार लगभग 1.5 टन, 1 एकड़ फुट मृदा का भार लगभग 4 x 100 पौण्ड होता है।)

सुधार के लिए आवश्यक जिप्सम की मात्रा विनिमय जटिल पर उपस्थित सोडियम की मात्रा पर निर्भर करती है। उदाहरण-एक मृदा जिसकी धनायन विनिमय क्षमता 10 सेन्टीमोल (PT) किया और 100 सेमी की गहराई तक औसत विनिमयशील सोडियम 4 मिली तुल्यांक/100 ग्राम है। इसकी विनिमयशील सोडियम प्रतिशत 40 है।

यदि इसकी ESP को घटा कर 10 करना है, तब इसका अर्थ है कि 3 मिली तुल्यांक/100 ग्राम विनिमयशील सोडियम को विस्थापित करना पड़ेगा। उपरोक्त तालिका में इस उदेश्य के लिए जिप्सम की आवश्यकता 41.8 टन/ है०/मी० है सामान्यतः ऊपर की 15 सेमी० मृदा के सुधार की संस्तुति की जाती है, तब जिप्सम की आवश्यकता (41.8x- ) 6.3 टन/ है० होगी।

अधिक लवणीय मृदाओं में जिनमें भूमिगत जल स्तर (भीम जल स्तर) ऊंचा एवं लवणीय होता है उनका सुधार जल निकास द्वारा जल स्तर को कम करके किया जाता है। जल निकास का उचित प्रबन्ध होने से मृदा में लवणों का संचय कम तथा वायु संचार बढ़ जाता है। जिन मृदाओं में भौम जल स्तर नीचा होता है उनका सुधार निक्षालन (leaching) की क्रिया द्वारा करते हैं। इस क्रिया द्वारा लवणों को जल में विलेय करके पौधों की जड़ क्षेत्र से नीचे ले जाया जाता है ताकि पौधों पर लवणों का बुरा प्रभाव न हो सके। निक्षालन के लिए ग्रीष्म ऋतु अति उत्तम होती है।

लवणीय मृदाओं की क्षमता -

बहुत सी समस्यायें होने पर भी क्षारीय मृदाओं का सुधार जिप्सम द्वारा करके इनमें पहले धान और उसके बाद गेहूं या जौ आदि फसले उगा सकते हैं।

लवणीय मृदाओं की बाध्यताएँ -

क्षारीय मृदाओं में मुख्य समस्या उनके विनिमय जटिल पर उपस्थित अत्यधिक सोडियम, खराब भौतिक दशायें, खराब संरचना एवं जल निकास, कम पोषक एवं पानी की उपलब्धता तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी है। दूसरी मुख्य समस्या जो अभी कुछ वर्षों में पंजाब के मध्य क्षेत्र और हरियाणा के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में अभूतपूर्व रूप से भूमिगत जल स्तर का बढ़ना है। भूमिगत जल स्तर बढ़ने से मृदाओं का लवणीकरण हो गया है अर्थात् क्षेत्र की मृदाये लवणीय हो गयी हैं जहाँ पर किसान पहले कपास एवं संतरा (citrus) की खेती करते थे अब उनको धान एवं यूकेलिप्टिस उगाना पड़ रहा है।


पीट और दलदली (Peat and Marsh Soils )

इन मृदाओं का निर्माण आर्द्र जलवायु में निचले स्थानों पर अधिक मात्रा में कार्बनिक पदार्थ के इकट्ठा होने से होता है। ये मृदायें केरल, तमिलनाडू एवं उत्तर पूर्वी राज्यों के कुछ स्थानों पर पायी जाती है।

दलदली मृदाओं का निर्माण नदियों और झीलों के निचले क्षेत्रों में जलाक्रान्ति (water logged) तथा आयवीय (anaerobic) दशाओं में होता है। इनमें फैरस आयरन की उपस्थिति के कारण प्रायः इनका रंग नीला होता है। ये काली, भारी तथा अम्लीय होती है।

ऐसी मृदायें जिनमें विलेय लवणों की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है करी (केरल में) मृदायें कहलाती है। मानसून के मौसम में ये मृदायें पानी में डूबी रहती है। दक्षिण पश्चिम एशिया में इनको कैंट क्ले (cat clay) या अम्लीय सल्फेट मृदायें (acid sulphate soils) कहते हैं।

इन मृदाओं का विकास आर्द्र उष्ण जलवायु में ज्वारीय दलदली क्षेत्रों में अधिक कार्बनिक पदार्थ की उपस्थिति में होता है। इनमें मध्यम मात्रा में फैरस एवं एल्युमिनियम सल्फेट तथा आयरन पायराईट (FeS2) का संचय पाया जाता है। जब इन क्षेत्रों में कृषि के लिए जल निकास करते हैं तो सल्फाइड का ऑक्सीकरण सल्फेट (SO) में हो जाता है, जो जैविक एवं रसायनिक क्रियाओं द्वारा सल्फुरिक अम्ल (H2SO4) का निर्माण करता है। जिसके फलस्वरूप मृदाओं का pH (< 4.0) काफी कम हो जाता है। अवायवीय दशाओं में, कार्बनिक पदार्थ के विघटन के फलस्वरूप ये मृदायें अत्यधिक अम्लीय हो जाती है। अत्यधिक अम्लीय दशा में, आयरन एवं एल्युमिनियम की घुलनशीलता बढ़ जाती है जिससे ये तत्व पौधों के लिए विषैले (toxic) हो जाते हैं। इसलिए ये मृदायें अधिकतर फसलों के लिए अनुपयुक्त होती है।

पीट और दलदली मृदाओं का वितरण -

भारत में, ये मृदायें केरल, उड़ीसा, सुन्दर वन (पश्चिमी बंगाल), दक्षिण तमिलनाडू तथा उत्तर पूर्वी राज्यों विशेषतः त्रिपुरा में पायी जाती है।

पीट और दलदली मृदाओं के विशिष्ट गुण -

  • कार्बनिक पदार्थ की अधिकता के कारण रंग गहरा से काला होता है।
  • कणाकार महीन होता है।
  • अवायवीय दशाओं में कार्बनिक पदार्थ के विघटन के कारण बहुत अधिक अम्लीय (pH 3.5-4.0) हो जाती है।
  • इन मृदाओं में आयरन एवं एल्युमिनियम सल्फेट, आयरन पायराईट का मध्य संचय विशेष रूप से ज्वारीय दलदली क्षेत्रों में पाया जाता है। जब इनका जल निकास करते हैं तो सल्फाईड, सल्फेट में ऑक्सीकृत हो जाता है जो बाद में सल्फुरिक अम्ल का निर्माण करता है जिससे इनका pH बहुत कम हो जाता है।
  • मुख्य क्ले खनिज केओलिनाईट एवं इस्मैकटाईट पाये जाते हैं।

पीट और दलदली मृदाओं का वर्गीकरण—

दक्षिण पश्चिम एशिया, पश्चिम अफ्रीका, उत्तर पूर्वी अमेरिका, उत्तरी यूरोप में इनको कैट क्ले या अम्लीय सल्फेट मृदायें कहते हैं। भारत में, केरल में इनको करी (kari) मृदायें कहते हैं। टैक्सोनोमी में, इन मृदाओं को इन्सैप्टीसोल्स एवं एन्टीसोल्स गणों में रखते हैं।

पीट और दलदली मृदाओं की क्षमता -

केरल में, इनमें भरा बाढ़ का पानी जलनिकास द्वारा निकाल कर धान की खेती करते है लेकिन ऑक्सीकरण को रोकने के लिए इनको नम बनाये रखते हैं। सुन्दर वन डेल्टा (पश्चिम बंगाल) में, क्षेत्र का पारिस्थितिकी सन्तुलन बनाये रखने के लिए इनको mangrove वनों के अन्तर्गत रखते हैं, जो अत्यधिक अम्लता एवं जलाक्रान्ति अवस्था को सहन कर सकते हैं।

पीट और दलदली मृदाओं की बाध्यताएँ —

इन मृदाओं में बहुत सी समस्यायें जैसे- पायराईट की उपस्थिति (जो ऑक्सीकृत होकर सल्फुरिक अम्ल बनाता है।), आयरन एवं एल्युमिनियम की विषाक्ता, फॉस्फोरस की कमी (आयरन एवं एल्युमिनियम के साथ अवक्षेपित हो जाता है), जल निकास से कार्बनिक पदार्थ का लुप्त होना, जल निकास प्रक्रिया का कठिन होना आदि पायी जाती है। इन सीमाओं के कारण फसलों को उगाने के लिए अनुपयुक्त या अधिकतर फसलों की बहुत कम उपज प्राप्त होती है।