मृदा का वर्गीकरण - मृदा को कितने गणों में रखा गया है |
मृदा को क्रमानुसार एवं व्यवस्थित ढंग से अलग समूह में रखना मृदा वर्गीकरण (classification of soil in hindi) कहलाता है ।
यह मुख्यतः मृदा के गुणों, अध्ययन के उद्देश्य और उनकी पहचान पर निर्भर करता है। इसमें एक वर्ग (class) से दूसरे वर्ग में गुणों में भिन्नता होती है; जैसे-बुलई, दोमट अथवा क्ले मृदायें ।
मृदा वर्गीकरण क्यों आवश्यक है?
वैज्ञानिक सदैव से मृदा वर्गीकरण के लिए प्रयत्नशील रहे हैं । मृदा को फसलोत्पादन के प्रारम्भ से ही वर्गीकृत किया जाता रहा है। प्रारम्भ में मृदा को उसकी फसल उत्पादन क्षमता के आधार पर 'अच्छी मृदा' (good soil) तथा 'खराब मृदा' (bad soil) में वर्गीकृत किया जाता था। मृदाओं का निर्माण विभिन्न मृदा निर्माणकारी कारकों एवं प्रक्रियाओं के संयोग से होता है ।
इसलिए मृदा अध्ययन (soil in hindi) को सुविधाजनक बनाने के लिए आवश्यक है कि उन्हें उनकी विभिन्नताओं और समानताओं के आधार पर एक व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध व्यवस्था में वर्गीकृत किया जाये ।
मृदा वर्गीकरण पद्धति के संवर्ग
इस पद्धति में वर्गीकरण के 6 संवर्ग है जिनको दो समूहों में बाँटा गया है -
उच्च संवर्ग (Higher category) -
इसमें निम्न तीन संवर्ग आते हैं -
- गण
- उपगण और
- वृहद समूह ।
निम्न संवर्ग (Lower category) -
इसमें निम्न तीन संवर्ग आते हैं-
- उपसमूह
- कुल और
- श्रेणी।
मृदा गण ( Soil Order ) -
गण संवर्ग मुख्यतः मृदा की आकारिकी पर आधारित है परन्तु मृदा उत्पत्ति एक प्रमुख कारक है । एक गण में सम्मिलित मुदायें अपनी उत्पत्ति में लगभग समान होती हैं । ये गण संख्या में बारह (12) है ।
मृदा उपगण ( Soil Suborder ) -
उपगण, गणों के उपविभाजन है जो उत्पत्तिमूलक समांगता पर बल देते हैं । उपगणों में भेद मृदा नमी, जलवायु के वातावरण एवं वानस्पतिक अन्तरों से उत्पन्न मृदा गुणों के आधार पर किया जाता है अभी तक 63 उपगणों को पहचाना गया है ।
वृहद् समूह ( Great group ) —
ये उपगणों के उपविभाजन होते हैं । एक वृहद् मृदा समूह में निदान सूचक संस्तर एक ही प्रकार के तथा एक समान ही विन्यास के होते हैं। निदानसूचक संस्तरों के आधार पर 274 वृहद समूहों को पहचाना गया है ।
उपसमूह ( Subgroup ) —
ये वृहद् समूहों के उपविभाजन होते हैं। किसी एक वृहद् समूह की प्रारुपिक या केन्द्रीय अवधारणा एक उपसमूह को निर्धारित करती है। अन्य उपसमूहों में ऐसी विशेषताएँ होती हैं, जो प्रधान धारणा तथा दूसरे वृहद् समूह के बीच अन्तर श्रेणी होती है ।
कुल ( Family ) —
इसके निर्धारण के लिए पादप वृद्धि से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण गुणों का प्रयोग किया जाता है। यह संवर्ग उप समूहों के सदस्यों, जिनकी समान विशेषताएँ जैसे- कणाकार, खनिज की मात्रा, पी-एच, मृदा ताप तथा गहराई होती है, को वर्गीकृत करता है ।
श्रेणी ( Series ) —
प्रत्येक कुल में कई श्रेणियाँ होती हैं। श्रेणी का नाम नदी, कस्बा या वह क्षेत्र जहाँ पर श्रेणी सर्वप्रथम पहचानी गयी हो, को प्रदर्शित करता है। एक श्रेणी में सम्मिलित मृदायें सतह कणाकार में भिन्न-भिन्न हो सकती है जिनके आधार पर एक श्रेणी के भीतर मृदा प्रकार का निर्धारण किया जाता है । श्रेणियों में अन्तर मृदा की विशेषताओं, जैसे-रंग, कणाकार, संरचना, गाढ़ता, मोटाई तथा प्रोफाइल में सस्तरों की संख्या से किया जाता है । श्रेणियों की स्थापना प्रोफाइल गुणों पर की जाती है। इसके लिए निम्न गुणों के लिए संस्तरों का गहन अध्ययन आवश्यक होता है; जैसे संख्या, गुण, मोटाई, संरचना, संहति, रंग, कार्बनिक पदार्थ की मात्रा, पी-एच । आदि अवमृदा की निचली सतहों में कंकड़ की कड़ी परत श्रेणी के अन्तर को स्पष्ट करने में सहायक होती है ।
मृदा गणों के सामान्य गुण | general characteristics of soil orders in hindi
1. एन्टीसॉल (Entisols) —
ये बिना प्राकृतिक आनुवंशिक संस्तरों की खनिज मृदायें होती हैं जिनमें संस्तरों का निर्माण केवल प्रारम्भ हुआ होता है। इन मृदाओं में अत्यधिक गहरा रिंगोलिथ बिना संस्तर के पाया जाता है। नवीन (recent) जलोढक पर अत्यधिक उपजाऊ एवं बंजर भूमि पर अनुपजाऊ तथा पैतृक चट्टानों पर उथली मृदायें इसके अन्तर्गत आती है। इनमें प्रोफाइल का अभाव होता है।
इस प्रकार की मृदायें विभिन्न जलवायुवीय दशाओं में पायी जाती है। स्थान एवं गुणों के आधार पर इन मृदाओं के उपजाऊपन में अन्तर होता है। जल एवं खाद की उचित व्यवस्था होने पर मृदायें अत्यधिक उपजाऊ हो सकती है। ये मृदाये अमेरिका, सऊदी अरब, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान एवं भारत के कुछ भागों में पायी जाती है। भारत में ये हिमाचल, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के गंगा के मैदानों में पायी जाती है। इस गण में पाँच उपगण पाये जाते हैं।
2. इन्सेप्टीसॉल (Inceptisols, L. inceptum, प्रारम्भ ) –
मृदा प्रोफाइल में शीघ्र बनी संस्तरे पायी जाती है, जो पैतृक पदार्थों के परिवर्तन से बनी होती है। संस्तरों की बनावट पूर्ण अपक्षय (weathering) प्रदर्शित नहीं करती है। संस्तरों में आयरन एल्यूमीनियम ऑक्साइड एवं मृत्तिका (क्ले) स्थिरीकरण अनुपस्थित होता है। इस गण की मृदाओं में प्रोफाइल का निर्माण एन्टीसॉल गण की अपेक्षा अधिक पूर्ण एवं विकसित होता है लेकिन अन्य गणों को अपेक्षा कम विकसित होता है।
इस गण में भूरी जंगली एवं एन्डो मृदाये आती है। बहुत सी कृषि योग्य मृदायें जिनमें जल निकास की सुविधा न हो, इसके अन्तर्गत आती है। ये मृदायें अमेरिका, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, भारत में गंगा के मैदानों एवं समुद्र तटीय इलाको में एवं ब्राजील में पायी जाती है। अमेजन एवं गंगा नदियों के किनारे भी इस गण की मृदाये पायी जाती है। ज्यादातर इन्सेप्टीसॉल उत्पादक होती है और इनमें प्रायः सभी फसलें उगायी जा सकती है। इसमें पाँच उपगण पाये जाते हैं।
3. वार्टिसाॅल (Vertisols, L. Verto, पलटना ) —
खनिज मृदाओं के इस गण की विशेषता इनमें फूलने वाली क्ले की अधिक मात्रा (30%) का उपस्थित होना है। जिसके कारण शुष्क होने पर इनमें बड़ी-बड़ी व गहरी दरारे पड़ जाती हैं। जिससे मृदा के भाग का कुछ अंश इन दरारों में नीचे चला जाता है। इस प्रकार ये मृदायें अपनी जुताई स्वयं शुष्क करती रहती हैं एवं ऊपर की मृदा नीचे और नीचे की मृदा ऊपर आ जाती है। मृदा का यह गुण इस गण की सर्वोत्तम पहचान है। प्राचीन वर्गीकरण में इन मृदाओं को ग्रुमोसॉल (grumosols) गण में रखा गया था।
ये मृदायें गीली अवस्था में चिपचिपी और सूखने पर कठोर हो जाती है। वर्षा के बाद जुताई योग्य होने में मृदा बहुत कम समय लेती है। ये मृदायें अति सूक्ष्म कणाकार तथा अधिक सिकुड़ने एवं फूलने के कारण इनमें कृषि कार्य करने में कठिनाई होती है। इनमें कपास, बाजरा, ज्वार और मोटे अनाज उगाये जाते हैं। अत्यधिक सिकुड़ाव, दरार पड़ने एवं अस्थिर होने के कारण मकानों, सड़कों के बनाने में समस्या उत्पन्न हो जाती है।
ये दक्षिण भारत, आस्ट्रेलिया, अमेरिका एवं सूडान में बहुतायत में पायी जाती है। इनका क्षेत्रफल संसार के कुल क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत है। इस गण में छः उपगण पाये जाते हैं।
4. मोलीसॉल (Mollisols, L. mollis, नर्म) –
संसार की कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृषि मृदायें इसके अन्तर्गत आती हैं। इस गण की प्रमुख विशेषता इनमें मॉलिक इपीपैडान (mollic epipedon) की उपस्थिति है जो मोटी, गहरी, काली तथा द्विसंयोजी धनायनों की प्रधानता वाली होती है। इनमें एल्बिक, नैट्रिक, आर्जिलिक या कैम्बिक संस्तर भी पाये जा सकते हैं परन्तु ऑक्सिक एवं स्पोडिक संस्तर अनुपस्थित होते हैं। पृष्ठ संस्तरों की संरचना प्रायः दानेदार या कम्बी (crumby) तथा सूखने पर ये कठोर नहीं होती है इसलिए इन्हें मौलिस (mollis) अर्थात् नरम शब्द से सम्बोधित किया जाता है। पुराने वर्गीकरण की चेस्टनट, चनजम, रेन्डजिना, प्रेरी (prairie), ब्रूनीजेम (brunizem) आदि मृदायें इसमें (सम्मिलित हैं। ये मृदायें रूस, अमेरिका, मंगोलिया, चीन, अजेन्टीना एवं भारत के कुछ भागों में पायी जाती है। भारत में मालीसॉल गण के अन्तर्गत उत्तराखण्ड व उत्तर प्रदेश के तराई की कुछ मृदायें तथा हिमाचल प्रदेश और उत्तर पूर्व हिमालय के जंगलो की मृदाये आती हैं।
मोलीसॉल संसार में सर्वोत्तम मृदाये हैं। पहली बार जब खेती के लिए इन्हें साफ किया जाता है तो मृदा में कार्बनिक पदार्थ, नाइट्रोजन एवं अन्य तत्वों की इतनी मात्रा होती हैं कि बिना उर्वरक प्रयोग के बहुत अच्छी फसल होती है। इस गण में सात उपगण पाये जाते हैं।
5. एरिडीसॉल (Aridisols. L. aridus, शुष्क) –
ये खनिज मृदायें अधिकतर शुष्क और अर्द्धशुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में पायी जाती है। भूमिगत जल या सिंचाई वाले स्थानों को छोड़कर, ये मृदायें वर्ष के अधिकांश भागों में सूखी रहती है। फलतः इनमें तीव्र निक्षालन (leaching) नहीं होता है। इनमें प्रायः हल्के रंग तथा कम कार्बनिक पदार्थ वाला आक्रिक
(ochric) सतह निदान सूचक संस्तर पाया जाता है। इनमें कैल्शियम कार्बोनेट (calcic), जिप्सम (gypsic) या अपेक्षाकृत अधिक विलेय लवणों (Salic) के संचयन से निर्मित संस्तर पाये जाते हैं। विश्व के शुष्क प्रदेशों की मृदायें इसके अन्तर्गत आती हैं; जैसे-रेगिस्तानी, सौरोजेम, लाल रेगिस्तानी, लाल भूरी एवं सोलोचक आदि मृदायें। अमेरिका, अफ्रीका में सहारा रेगिस्तान, चीन में गोबी एवं तक लामाकन रेगिस्तान, रूस में तुर्किस्तान रेगिस्तान, दक्षिणी मध्य आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अर्जेंटीना, पश्चिमी पाकिस्तान में पायी जाती है।
भारत में एरोडिसाल, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब आदि क्षेत्रों में पायी जाती है। इनमें सिंचाई की सुविधा न होने पर खेती करना असम्भव होता है। लेकिन सिंचाई की सुविधा होने पर इनको अत्यधिक उपजाऊ बनाया जा सकता है। इस गण के सात उपगण पाये जाते हैं।
6. अल्फीसॉल (Alfisols) —
एल्फीसॉल नम खनिज मृदायें होती हैं। इनमें हल्के रंग का आक्रिक सतह संस्तर सिलिकेट क्ले युक्त आर्जीलिक (argillic) अधोसतह संस्तर के ऊपर पाया जाता है। क्ले संस्तर प्राय 35 प्रतिशत से अधिक क्षार संतृप्त होते हैं। यदि इस संस्तर में केवल सिलिकेट क्ले ही होती है तो आर्जिलिक संस्तर कहते हैं, यदि इनमें क्ले के अतिरिक्त 15% से अधिक सोडियम तथा संरचना प्रिज्म (Prismatic) या स्तम्भाकार (Columnar) होती है तो इस संस्तर को नैट्रिक संस्तर कहते हैं। एल्फीसाल, स्पोडोसॉल की अपेक्षा कम तथा इन्सेण्टीसॉल की अपेक्षा अधिक अपक्षयित (Weathered) होती है। ये अधिकतर आर्द्र उष्ण क्षेत्रों में प्राकृतिक पर्णपाती (deciduous) वनों से निर्मित होती है। कुछ दशाओं में घास के मैदानों में भी ये मृदायें पायी जाती हैं। अकैल्सिक भूरी, प्लानोसॉल, सोलोडीकृत, सोलोनेज एवं अर्द्ध दलदली मृदायें इस गण में आती हैं।
कृषि की कुछ महत्त्वपूर्ण मृदायें इस गण में पायी जाती हैं। उत्तरी यूरोप, अमेरिका, साइबेरिया, पश्चिमी रूस, दक्षिणी अफ्रीका, पूर्वी ब्राजील, दक्षिणी एशिया, मध्य चीन, दक्षिणी आस्ट्रेलिया आदि देशों में ये मृदायें पायी जाती है। भारत में ये मृदाये आन्ध्र प्रदेश, असम, बिहार, अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडू, उड़ीसा तथा मध्य प्रदेश के कुछ भागों में पायी जाती है। इस गण में पाँच उपगण पाये जाते हैं।
7. स्पोडोसॉल (Spodsols, Gk. Spodos, लकड़ी की राख ) -
स्पोडोसॉल वे खनिज मृदायें हैं जिनमें स्पोडिक संस्तर (spodic horizon) पाया जाता है जिनके अवमृदा में कार्बनिक पदार्थ एवं एल्युमिनियम ऑक्साइड के आयरन ऑक्साइड सहित या रहित ऑक्साइड का संचयन होता है। यह इल्यूवियल (illuvial) संस्तर प्रायः ऐल्युवियल (eluvial) संस्तर के नीचे मिलते है। जो हल्के भूरे रंग के राख जैसे होते हैं। ये मृदायें प्रायः मोटी संरचना वाली अम्लीय पैतृक पदार्थों पर बनी होती है जहाँ निक्षालन तीव्र होता है।
इस गण की मृदायें केवल आई जलवायु में पायी जाती है जहाँ वर्षा एवं उण्डक अधिक पड़ती। है। इन मृदाओं में प्राकृतिक वनस्पति जंगल है। ऊपरी भाग में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ सड़कर अम्ल पैदा करता है। यह अम्ल ऊपरी संस्तर में उपस्थित आयरन एवं एल्युमिनियम ऑक्साइड एवं अन्य खनिजों को अपने में घोलकर वर्षा जल के साथ नीचे अवमृदा में ले जाता है और ऊपर कठोर सिलिका बचा रह जाता है। नीचे आयरन, एल्युमिनियम ऑक्साइड, कार्बनिक पदार्थ एवं अम्ले अवक्षेपित होकर स्पोडोसॉल प्रोफाइल का निर्माण करते हैं। पौडजोल, भूरी पोडजोल, अवमृदा जल पाडजोल आदि मृदाये इसके अन्तर्गत आती हैं।
उत्तरी अमेरिका, यूरोप, कनाड़ा एवं साइबेरिया में ये मृदायें पायी जाती हैं। उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों के पर्वतीय ठंडे स्थानों में भी ये मृदायें पायी जाती है। इसके निर्माण में आवश्यक पैतृक पदार्थ एवं वातावरणीय दशाओं की कमी के कारण भारत में वास्तविक स्पोडोसॉल बहुत कम पायी जाती है। इस गण में चार उपगण पाये जाते हैं।
8. अल्टीसॉल (Ultisols, L. ultimus, अन्तिम ) -
लाल पीली, पाड्जोल, लाल भूरी लेटराइट, ह्यूमिक क्ले, भौम जल लेटराइट मृदायें इसके अन्तर्गत आती हैं। ये प्रायः आर्द्र मृदायें होती हैं, जो गर्म उष्ण कटिबंधीय जलवायु में उत्पन्न होती है। ये अत्यधिक अपक्षयित और एल्फोसॉल की अपेक्षा अधिक अम्लीय लेकिन स्पोडोसॉल से कम अम्लीय होती है। इनमें आर्जिलिक संस्तर पाये जाते हैं जिनमें क्षार संतृप्ता 35% से कम होती है। इनकी अवमृदा प्रायः लाल या पीली होती है जिससे आयरन ऑक्साइड एकत्रीकरण स्पष्ट होता है। इनमें ऑक्सीसॉल के विपरीत कुछ अपक्षयित खनिज पाये जाते हैं।
ये मृदायें आस्ट्रेलिया, अमेरिका, दक्षिणी पूर्वी एशिया, ब्राजील एवं चीन में पायी जाती है। भारत में ये मृदायें केरल, तमिलनाडू, उड़ीसा, आसाम, बिहार तथा हिमाचल प्रदेश में पायी जाती है। ये मृदाये एल्फीसाल और मोलीसॉल की अपेक्षा कम उपजाऊ होती है। इनमें मृदा प्रबन्ध की अधिक आवश्यकता होती है। इनमें आयरन, एल्युमिनियम ऑक्साइड सहित 1: 1 क्ले पायी जाती है। उर्वरकों के प्रयोग से इन मृदाओं से अच्छी पैदावार ली जा सकती है। इस गण में पाँच उपगण पाये जाते हैं।
9. ऑक्सीसॉल (Oxisol, Fr. oxide, ऑक्साइड) -
ऑक्सीसॉल सबसे अधिक अपक्षयित मृदायें होती हैं। इनकी मुख्य विशेषता इनमें एक आक्सिक (oxic) संस्तर का गहराई में पाया जाना है। इस संस्तर में क्ले आकार के कण बहुत होते हैं। जिन पर आयरन एवं एल्युमिनियम के हाइड्रस ऑक्साइड्स की प्रधानता होती है। अपक्षय तथा अधिक लीचिंग के कारण इस संस्तर से अधिक मात्रा में सिलिकेट खनिजों से सिलिका निष्कासित हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप इस संस्तर में Fe और Al के ऑक्साइड का उच्च अनुपात बना रहता है। थोड़ी मात्रा में क्वट्ज और 11 प्रकार के सिलिकेट खनिज भी इस संस्तर में पाये जाते हैं, परन्तु हाइड्रस ऑक्साइड् की प्रधानता होती है। इन मृदाओं में क्ले की मात्रा बहुत अधिक लेकिन अचिपचिपी (nonsticky) होती है। ऑक्सीसॉल में अपक्षय की गहराई बहुत अधिक (15 मीटर या अधिक) होती है।
लैटोसॉल एवं भौम जल लेटराइट इसके अन्तर्गत आती है। दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, ब्राजील आदि देशों में ऑक्सीसॉल मृदायें पायी जाती हैं। भारत में ये मृदायें केरल, तमिलनाडू, कर्नाटक एवं उड़ीसा के कुछ भागों में पायी जाती है। इन मृदाओं की उर्वरता बहुत कम होती है और सूक्ष्म तत्वों की कमी पायी जाती है। इनमें अत्यधिक उर्वरकों का प्रयोग एवं जल निकास का उचित प्रबन्ध करके खेती की जाती है। इस गण में पाँच उपगण पाये जाते हैं।
10. हिस्टोसॉल (Histosols, Gk, Histus, उत्तक) –
इस गण में कार्बनिक एवं अर्द्ध- दलदली मृदायें आती है इनमें हिस्टिक (histic epipedon) पृष्ठ संस्तर पाया जाता है। ये मृदायें जल संतृप्त वातावरण में उत्पन्न होती हैं। इन मृदाओं में कार्बनिक पदार्थ 20 से 30% तक पाया जाता है। क्ले भाग में वृद्धि होने पर कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में भी वृद्धि होती है। ये मृदायें बहुत उपजाऊ होती है। इन्हें पीट व मक मृदा भी कहते हैं। ये कनाडा, अमेरिका, रूस, यूरोप के देशों व अन्य स्थानों पर पाई जाती है। भारत में ये मुदा बहुत कम क्षेत्रफल में केरल एवं अण्डमान और निकोबार दीप समूह में पायी जाती है। इस गण में चार उपगण पाये जाते हैं।
11. एन्डीसॉल (Andisols, Jap and, काली मृदा) –
एन्डीसॉल मृदायें सर्वप्रथम जापान में पहचानी गयी थी। इन मृदाओं का निर्माण ज्वालामुखी के मुहानों पर उसके विस्फोट से निकली राख (ash) से होता है। इनका रंग काला और आभासी घनत्व (bulk density) कम होती है। इनमें एल्बिक (albic) संस्तर नहीं होता है लेकिन कैम्बिक संस्तर के ऊपर एण्डिक (andic) गुण (मोलिक या अम्बिक) पृष्ठ संस्तर पाये जाते हैं। और इनमें से एक या दोनों कम अभासी घनत्व (< 0.9 Mg m) या 60% या अधिक विट्रिक (vitric) ज्वालामुखी राख मृदा की 60 सेमी गहराई तक पायी जाती है। इनमें सिलिकेट खनिज एलोफेन, इमोगोलाइट तथा एल्युमिनियम ह्यूमस काम्पलैक्स की अधिकता होती है। इनमें प्रोफाइल का विकास कम होता है। ये मृदायें अधिक उपजाऊ होती है।
ये मृदायें जापान, न्यूजीलैण्ड, इण्डोनेशियम, फिलिपिन्स, अफ्रीका में विशेषत किनिया, दक्षिणी अमेरिका आदि में पायी जाती है। भारत में इस तरह की मृदायें अण्डमान और निकोबार दीप समूह में पहचानी गयी है। इस गण में सात उपगण पाये जाते है।
12. गलीसॉल (Gelisols, L. gelare, जमी हुई) –
इस मृदा गण की पहचान 1999 (Soil survey staff, 1999) में हुई गैलीसॉल बहुत ठण्डी जलवायु की मृदायें हैं। इनकी सतह से 2 मीटर की गहराई तक permafrost पाया जाता है। ये मृदावें भौगोलिक दृष्टि से उच्च अक्षांश ध्रुवीय क्षेत्रों एवं ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों में पायी जाती है। चरम वातावरण दशाओं में पाये जाने के कारण ये विश्व की कुल जनसंख्या में से केवल 0.4% को सहारा प्रदान करती है, इनका क्षेत्रफल अन्य सभी मृदा गणों में सबसे कम है। गैलीसॉल पृथ्वी के बर्फ से मुक्त क्षेत्र का लगभग 9.1% है जबकि अमेरिका में ये लगभग 8.7% क्षेत्रफल में पायी जाती है। कुछ गैली सॉल बहुत पुरानी भूमि सतहों पर हो सकती है। आकारिकी में ये अपेक्षाकृत कम विकसित होती है। कम तापमान में पाये जाने के कारण इनमें कार्बनिक पदार्थ का विघटन धीरे-धीरे होता है । अधिकतर गैलीसॉल में जैविक कार्बन अधिक पाया जाता है। जबकि अंटार्कटिका की घाटियों में पायी जाने वाली मृदायें इसका अपवाद है क्योंकि ये रेगिस्तानी क्षेत्र में बिना किसी वनस्पति के पायी जाती है अतः इनमें बहुत कम जैविक कार्बन पाया जाता है । इस गण में तीन उपगण पाये जाते हैं ।
ये मृदायें उत्तरी अमेरिका, कनाड़ा, ग्रीन लैण्ड, रूस, मंगोलिया आदि देशों में पायी जाती है। भारत में अभी तक इन मुदाओं की पहचान नहीं हुई है जो बर्फ से ढके क्षेत्रों लेह, लदाख, सिक्किम और उच्च हिमालय क्षेत्रों में हो सकती है ।
7 वां सन्निकट वर्गीकरण पद्धति के लाभ
(Importance of 7th Approximation of New Comprehensive System/Soil Taxonomy)
- यह मृदा निर्माणकारी प्रक्रमों की अपेक्षा मृदा वर्गीकरण को स्वीकार करती है ।
- यह पद्धति मृदा से सम्बन्धित विज्ञानों, जैसे- भूगर्भ विज्ञान तथा जलवायु सम्बन्धी विज्ञान की अपेक्षा मृदा पर ही केन्द्रीभूत है ।
- यह अज्ञात उत्पत्ति वाली मृदाओं के वर्गीकरण का भी अनुमोदन करती है, इसके लिए केवल मृदा गुणों के ज्ञान की आवश्यकता होती है ।
- यह पद्धति विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा प्रयुक्त वर्गीकरणों में अधिक समानता दर्शाती है ।
(आर० एम० (पी० जी०) कॉलेज गुरुकुल नारसन (हरीद्वार)