मृदा निर्माण (soil formation in hindi) मिट्टी का निर्माण कैसे होता है एवं इसे प्रभावित करने वाले कारक

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मृदा निर्माण (soil formation in hindi) मिट्टी का निर्माण कैसे होता है एवं इसे प्रभावित करने वाले कारक 


प्रोफाइल का विकास होना ही मृदा निर्माण (soil formation in hindi) कहलाता है ।

चट्टानों एवं खनिजों के अपक्षय से प्राप्त खनिज पदार्थ अथवा पौधे एवं जंतुओं के अवशेष के विघटन से प्राप्त कार्बनिक पदार्थ, इन दोनों के मिलने से ही मृदा का निर्माण होता है ।

मिट्टी का निर्माण कैसे होता है? | how is soil formation in hindi

मृदा का निर्माण चट्टानों के टुटने-फूटने से निर्मित रिगोलिथ (regolith) द्वारा होता है। रिगोलिथ अंसगठित एवं अदृष्टिभूत कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थों का मिश्रण है, जो मृदा की आधार चट्टानों (bed rocks) के ऊपर की तरफ स्थित होता है । मृदा निर्माण की दोनों प्रावस्थाएँ भौतिक, रसायनिक एवं जैविक शक्तियों द्वारा सम्पन्न होती है ।

मृदा के निर्माण में सम्मिलित प्रक्रमों का क्रम है -

  • चट्टानों के अपक्षय (weathering of rocks) से रिगोलिथ का निर्माण ।
  • रिगोलिथ से वास्तविक मृदा का निर्माण ।

मृदा निर्माण (soil formation in hindi), मृदा निर्माणकारी प्रक्रमों एवं कारकों के सम्मिलित प्रभावों का परिणाम है । चट्टानों का अपक्षय एवं मृदा निर्माण दोनों चरण एक दूसरे से मिले होते हैं। इन दोनों के बीच कोई निर्धारित सीमा नहीं होती है अर्थात् दोनों प्रक्रम प्रकृति में साथ-साथ चलते रहते हैं । वनस्पति, जलवायु द्वारा नियन्त्रित होती है जो प्रोफाइल के विकास को नियन्त्रित करती है ।

मृदा निर्माण में, स्थानीय स्थलाकृति भी महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि यह जलवायु एवं वनस्पति तथा जलनिकास एवं अपक्षालन (leaching) प्रक्रियाओं को प्रभावित करती है । सभी परिपक्व मृदाओं में पाये जाने वाला अन्तर मृदा निर्माणकारी कारकों एवं प्रक्रियाओं के विशेष संयुक्त प्रभाव के कारण होता है ।


मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक (factors affecting soil formation in hindi)

मृदा की उत्पत्ति या प्रोफाइल का विकास एक विघटन एवं संश्लेषणात्मक प्रक्रिया है। जिसके प्रथम चरण में चट्टानों एवं खनिजों का अपक्षय होता है तथा दूसरे चरण में अपक्षयित पदार्थों से प्रोफाइल का विकास होता है ।

प्रोफाइल का विकास अनेक प्रकार के कारकों एवं प्रक्रमों द्वारा प्रभावित होता है । यही कारण है कि किसी स्थान विशेष की मृदा के गुण अन्य स्थान की मृदाओं से अलग होते हैं।

प्रोफाइल विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-

  • पैतृक पदार्थ ( Parent material )
  • स्थलाकृति ( Topography )
  • जलवायु ( Climate )
  • जीवमण्डल ( Biosphare )
  • समय ( Time )

मृदा निर्माण में सभी कारकों का एक समान प्रभाव नहीं होता है कुछ कारक मृदा निर्माण में अपना बहुत अधिक प्रभाव डालते हैं। फिर भी सभी कारक एक दूसरे से सम्बन्धित एवं पूरक होते हैं।

जेनी (Jenny, 1941) ने इन कारकों के मृदा निर्माण में परस्पर सम्बन्धों को एक सूत्र द्वारा व्यक्त किया, जो निम्नलिखित हैं- s = f (cl, b, r, p, t)
जहाँ पर, s = मृदा का कोई एक गुण (Any soil property)
f= कार्य (Function)
cl = जलवायु (Climate)
b = जीवमण्डल (Biosphere) r = स्थलाकृति या भूतल (Topography or relief)
p = पैतृक पदार्थ (Parent material)
t = समय (Time)

जोफे (Joffe, 1949) ने उपरोक्त सभी कारकों को दो मुख्य भागों में विभाजित किया-

  • सक्रिय कारक (active factors)— सक्रिय कारक ऊर्जा प्रदान करते हैं, जो द्रव्यमान (mass) पर मृदा निर्माण या विकास के उद्देश्य से कार्य करती है । सक्रिय कारको में जलवायु एवं जीवमण्डल आते हैं ।
  • निष्क्रिय कारक (passive factors) – निष्क्रिय कारक वे होते हैं , जो मृदा निर्माणकारी द्रव्यमान के स्रोत एवं उसको प्रभावित करने वाली दशाओं का प्रतिनिधित्व करते है । ये सक्रिय कारकों को मृदा विकास के लिए एक आधार प्रदान करते हैं । निष्क्रिय कारकों में स्थलाकृति, पैतृक पदार्थ एवं समय सम्मिलित है ।


1. सक्रिय मृदा निर्माण कारक ( Active Soil Forming Factors )

  • जलवायु ( Climate ) - जलवायु में वर्षा, तापक्रम, आर्द्रता, शुष्कता एवं हवा सम्मिलित है। जलवायु को प्रभावित करने वाले मुख्य कारको में वर्षा एवं तापक्रम है । जलवायु के विभिन्न तत्व जल की आपूर्ति का निर्धारण वर्षा एवं वाष्पोत्सर्जन, तापक्रम एवं सूर्य की किरणों द्वारा आपूर्ति की गयी कुल गर्मी द्वारा करते हैं । जलवायु मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारण है, यह मृदा निर्माण को परोक्ष रूप से जल एवं आपूर्ति की गयी गर्मी तथा अपरोक्ष रूप से विभिन्न प्रकार के पौधों एवं जन्तुओं द्वारा निर्मित विभिन्न प्रकार एवं प्रकृति के कार्बनिक पदार्थों द्वारा करती है । उदाहरण - उच्च तापमान एवं मध्यम से अधिक वर्षा (शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में) वाले क्षेत्र लेटराइट मृदा के निर्माण के अनुकूल होते हैं क्योंकि इन क्षेत्रों में सघन अपक्षय एवं क्षारीय पदार्थों का परिच्यवन होता है । आर्द्रता बढ़ने पर मृदा में नाइट्रोजन, कार्बन, क्ले, समुच्चय, विनिमेय हाइड्रोजन एवं संतृप्त क्षमता प्रायः बढ़ जाती है लेकिन pH विनिमेय क्षार एवं सिलिका:एल्युमिनयम अनुपात कम हो जाता है। आर्द्रता बढ़ने के साथ-साथ कैल्शियम कार्बोनेट नीचे की परतों में चला जाता है । उष्ण कटिबन्धीय भागों में वर्षा के बढ़ने से क्ले की मात्रा कम हो जाती है । क्योंकि इसके विघटन से द्वितीयक पदार्थ बनने लगते हैं। वर्षा अपरदन एवं अन्तः स्रवण को भी प्रभावित करती है जिससे संस्तरों का विकास होता है । तापक्रम जैविक पदार्थों के अपघटन एवं जैविक क्रियाओं को बहुत प्रभावित करता है। तापक्रम वाष्पीकरण क्रिया द्वारा वर्षा की तीव्रता को भी प्रभावित करता है। तापक्रम बढ़ने से अपक्षय क्रिया तेजी से होने लगती है और मृदा में क्ले की मात्रा बढ़ जाती है। वर्षा एवं पैतृक पदार्थ के समान होने पर भी तापक्रम में विभिन्नता के कारण दो अलग क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के प्रोफाइल का निर्माण होता है ।
  • जीवमण्डल ( Biosphere ) — पौधों एवं जन्तुओं की क्रियाओं तथा उनके कार्बनिक अवशिष्ट एवं अवशेषों के विघटन का मृदा निर्माण के साथ-साथ मृदा प्रोफाइल के विकास पर अत्यन्त प्रभाव पड़ता है। विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों जैसे—जंगली पेड़ तथा घासों में विभिन्न प्रकार की जड़ प्रणाली, जड़ स्राव आदि भी मृदा निर्माण को प्रभावित करते हैं ।वनस्पतियाँ विशेष रूप से घास, अपघावन (runoff) की हानि को कम तथा मृदा जल की मात्रा को बढ़ाते हैं, भी मृदा निर्माण को प्रभावित करते हैं । सूक्ष्मजीवाणु कार्बनिक पदार्थों के विच्छेदन एवं रूपान्तरण के कार्य करते हैं। विभिन्न निदान सूचक मृदा संस्तरों के निर्धारण में मृदा कार्बनिक पदार्थ पर भी विचार किया जाता है । घास वाली वनस्पतियों से निर्मित मृदाओं की अपेक्षा जंगली वनस्पतियों द्वारा निर्मित मृदायें अधिक संस्तरों वाली होती हैं एवं उनका A संस्तर अधिक निक्षालित होता है। जंगल प्रायः शीतोष्ण प्रदेशों में, झाडियाँ रेगिस्तानों में और घास के मैदान अनावर्ती (intermediate) भागों में अधिक पाये जाते हैं । बहुत से जन्तु जैसे- केंचुए, चीटियाँ, दीमक, बिल खोदने वाले एवं काटने वाले मृदा निर्माण में बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं, अगर ये अधिक संख्या में उपस्थित हों। ये मृदा में जैव पदार्थ भी मिलाते हैं । चीटियाँ, दीमक एवं चूहें नीचे स्थित पदार्थों को खोदकर ऊपर की सतह पर पहुँचाने का कार्य करते हैं अतः ये मृदा संस्तरों को आपस में मिलाते रहते हैं। जीवाणु कार्बनिक एवं खनिज पदार्थों को विच्छेदित करके मृदा प्रोफाइल के विकास में सहायता करते हैं ।


2. निष्क्रिय मृदा निर्माण कारक ( Passive Soil Forming Factors )

  • पैतृक पदार्थ (Parent materials) – प्रारम्भिक मृदा पदार्थ जो मृदा प्रोफाइल विकास के साथ-साथ मृदा के भौतिक गुणों का भी निर्धारण करता है पैतृक पदार्थ कहलाता है। जेनी के अनुसार, "पैतृक पदार्थ मृदा निर्माण के शून्य समय पर मृदा की अवस्था है।' आधार चट्टानों (bed rocks) के ऊपर तथा B संस्तर के नीचे जो C संस्तर पाया जाता है को प्रायः पैतृक पदार्थ कहते हैं । मृदा निर्माण के प्रारम्भिक समय में पैतृक पदार्थों की प्रधानता होती है और नवीन मृदाओं के भौतिक एवं रसायनिक गुण उनसे प्रभावित होते हैं परन्तु लगातार निक्षालन होने से पैतृक पदार्थों का प्रभाव कम होने लगता है । मृदा के A संस्तर से अनेक प्रकार के खनिजों के तत्व निक्षालित होकर B संस्तर में एकत्रित होते रहते हैं । जिससे दोनों संस्तर एक दूसरे से काफी भिन्न हो जाते हैं। यदि यह क्रिया लगातार चलती रहती है तो सामान्य मृदा वातावरण के अनुकूल हो जाती है और एक पूर्ण परिपक्व मृदा का निर्माण हो जाता है । एक विकसित मृदा गुण पूरी तरह से पैतृक पदार्थ पर ही निर्भर नहीं होते। मृदा निर्माण के कारकों की समान अवस्था में विभिन्न प्रकार के पैतृक पदार्थों से एक ही प्रकार की समान मृदा का निर्माण होता है जबकि एक ही प्रकार के पैतृक पदार्थों पर असमान निर्माणकारी कारकों के प्रभाव से विभिन्न प्रकार की मृदाओं का निर्माण होता है फिर भी एक पूर्णतया विकसित मृदा पर पैतृक पदार्थों का कुछ प्रभाव पड़ता है ।
  • स्थलाकृति (Topography ) — पृथ्वी की सतह का ढाल या ढलवापन स्थलाकृति कहलाती है। किसी स्थान की जलवायु, वहाँ की जलीय दशा और भूतल की क्षरणशीलता का मृदा निर्माण पर विशेष प्रभाव पड़ता है और इन सब कारकों पर स्थलाकृति का प्रमुख प्रभाव पड़ता है। स्थलाकृति की दशा भूतल क्षरण को सीधे नियन्त्रित करती है । क्षरण जितना अधिक होगा मृदा उतनी ही कम विकसित होगी और मृदा की गहराई भी कम होगी । यही कारण है कि अधिक ढालदार पर्वतों पर जहाँ अपधावन अधिक होता है मृदा की गहराई बहुत कम होती है । समतल स्थानों पर मृदा में जल नीचे रिसता रहता है जिससे गहरी मृदाओं का निर्माण होता है । निचले भागों में स्थित मृदाओं में वनस्पति का उत्पादन अधिक होता है लेकिन अजीवित जैविक पदार्थों का विघटन एवं सड़ाव बहुत धीमी गति से होता है जिससे वहाँ पर जैविक पदार्थों का ढेर लग जाता है । यदि ऐसी मृदा निरन्तर नम बनी रहे तो पीट एवं मक मृदाओं का निर्माण होता है ।
  • समय ( Time ) — मृदा निर्माण या संस्तरों के विकास में समय की आवश्यकता बहुत से एक दूसरे से सम्बन्धित कारकों जैसे- जलवायु, पैतृक पदार्थ की प्रकति एवं स्थलाकृति आदि पर निर्भर करती है। मृदा के विकास के प्रारम्भ से वर्तमान मृदा अवस्था तक जो समय लगा है उसे मृदा की आयु कहते हैं। मृदा निर्माण की प्रक्रिया बहुत मन्द गति से चलती है। इसलिए मृदाओं की आयु कुछ वर्षों से लेकर हजारों सालों तक होती है। मुदा की लगभग औसत आयु का निर्धारण रेडियो कार्बन डेटिंग (radio carbon dating), पराग विश्लेषण (pollen analysis) या कैलिची सतह (caliche layer) में कार्बोनेट कार्बन द्वारा करते हैं । पूर्ण विकसित मृदा में संस्तर पूर्ण विकसित एवं एक दूसरे से भिन्न होते है जिस पर मृदा निर्माणकारी कारकों की क्रिया अधिक समय तक होती है। कुछ मृदायें पूर्ण परिपक्व एवं कुछ अपरिपक्व कही जाती है जो प्रत्यक्ष रूप से समय को प्रदर्शित करती है परन्तु मृदा की सम्पूर्ण बनावट केवल अपक्षय समय पर ही निर्भर नहीं होती है । सामान्य दशाओं में पहचानने योग्य प्रोफाइल के विकास में 200 वर्ष लगते हैं । स्वीडन के मृदा वैज्ञानिकों के अनुसार 30 सेमी० आदर्श मृदा के निर्माण में 1600 वर्ष लगते हैं। मृदा निर्माण में अवरोध पैदा करने वाले कारक अत्यधिक ठण्ड एवं शुष्क जलवायु, अपारगम्यता एवं अधिक चुनायुक्त बहुत तिरछे ढाल वाला संगठित पैतृक पदार्थ है ।

मोहर तथा वैन बरेन ( Mohr and Van Baren ) ने मृदा विकास की निम्नलिखित पाँचअवस्थों की पहचान की -

  • प्रारम्भिक अवस्था (Intitial stage ) — अन अपक्षयित पैतृक पदार्थ ।
  • तरूण अवस्था (Juvenile stage) - अपक्षय प्रायः प्रारम्भ, लेकिन अधिकतर मौलिक पदार्थ अनअपक्षयित रहता है ।
  • पौरुषेय अवस्था / प्रौढ़ (Virile) - अधिकतर भागों में आसानी से विच्छेदत होने वाले पदार्थों का अपक्षय, क्ले की मात्रा बढ़ जाती है तथा कुछ कोमलता दृष्टिगोचर होती है. अपक्षय के प्रति कम संवेदनशील मृदा अवयव काफी मात्रा में रहते हैं ।
  • वृद्धा अवस्था (Senile ) — विघटन अन्तिम अवस्था में पहुँच जाता है, और प्ल अपक्षय से बहुत असंवेदनशील खनिज शेष रहते हैं ।
  • अन्तिम अवस्था (Final) — मृदा का पूर्ण विकास हो जाता है तथा पैतृक पदार्थ से अपक्षयित हो जाता है ।


मृदा निर्माण प्रक्रम | processes of soil formation in hindi

चट्टानों एवं खनिजों के अपक्षय के बाद अपक्षयित खनिज अंश का मृत एवं जीवित जीवांश पदार्थ का विषमांग (heterogenous) मिश्रण बनता है, जो मृदा के निर्माण में कच्चे माल का कार्य करता है। इस अवस्था के बाद भी इस खनिज मिश्रण में परिवर्तन होते हैं जिनके फलस्वरूप आर्दश मृदा द्रव्य का निर्माण होता है ।

1. आधारभूत मृदा निर्माण प्रक्रम (Fundamental pedogenic processes)—

  • विच्छेदन
  • संश्लेषण
  • ह्यूमीकरण
  • निक्षालन
  • निक्षेपण

विच्छेदन ( Decomposition ) —

अपक्षय के पश्चात् प्राप्त अपक्षयित पदार्थ का पुनः विच्छोदन होता है। जिससे Al2O3. Fe2O3, SiO, आंशिक रूप से परिवर्तित होकर मृदा कोलाइडी अंश बनाते है। विलेय Ca Mg Na. K. CI. SO, CO, व HCO3 मृदा विलयन में पहुंचकर रसायनिक प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप अनेक प्रकार के खनिजों से अलग नये यौगिकों का निर्माण करते है। इस प्रकार संकीर्ण खनिज सरल यौगिकों में विच्छेदित होते हैं ।

संश्लेषण ( Synthesis ) -

विच्छेदन के उपरान्त बने सरल पदार्थ संयुक्त होकर क्ले Fe ओर Al के हाइड्रस ऑक्साइड, Ca Mg, Na. K आदि के कार्बोनेट्स तथा Mn व Ti आदि के ऑक्साइड का निर्माण करते हैं । इस प्रकार के संश्लेषण में जलवायु सम्बन्धी (वर्षा, तापक्रम, वायु आदि) कारकों की मुख्य भूमिका होती है। इस प्रक्रम द्वारा मृदा प्रोफाइल का विकास होता है ।

ह्यूमीकरण ( Humification ) –

कच्चे कार्बनिक पदार्थों का हामस में परिवर्तन की प्रक्रिया को ह्यूमीकरण कहते हैं। इस प्रक्रिया के समय घुलनशील कार्बनिक पदार्थ स्वयं पुनः समूह बनाकर बड़े कण बनाते हैं। इसके गुण वनस्पतिक अवशेषों की प्रकृति एवं किस तरह से इसका विच्छेदन हुआ है तथा नये कार्बनिक यौगिकों के संश्लेषण द्वारा निर्धारित होते हैं। हामीकरण अधिकतर नम एवं ठण्डे प्रदेशों में अधिक होता है जबकि कार्बनिक पदार्थों का विच्छेदन एवं इस प्रक्रिया में भाग लेने वाले सूक्ष्मजीवाणुओं की सक्रियता नम एवं उष्ण प्रदेशों में अधिक पायी जाती है परन्तु ह्यूमस का संचयन कम होता है ।

निक्षालन ( Eluviation ) -

Eluviation का अर्थ Washing out अर्थात् घुलाना है। निक्षालन यह प्रक्रिया है जिसमें मुदा के ऊपरी संस्तरों में उपस्थित अवयव नीचे की तरफ प्रवाहित जल के साथ निम्न संस्तरों में चले जाते हैं। इसलिए इसे निक्षालन संस्तर (eluvial horizon) कहते हैं। निक्षालित होने वाले आयनों में SO NO. Ca# आदि प्रमुख है। आर्द्र जलवायु में SiO2 भी निक्षालित होकर नीचे के संस्तरों में चला जाता है। अधिक निक्षालन प्रक्रम के परिणामस्वरूप क्षारीय लवणों के निक्षालन से अम्लीय मृदाओं का निर्माण होता है। इस प्रक्रिया से लेटराइट मृदाओं का निर्माण होता है।

निक्षेपण ( lluviation ) —

lluviation का अर्थ Wash in अर्थात् घुला हुआ है। वह प्रक्रिया जिसमें ऊपरी संस्तरों से बहाकर आने वाले जल के साथ अनेक प्रकार के कार्बनिक एवं अकार्बनिक अवयव निचले संस्तरों में जाकर संचय होते रहते हैं को निक्षेपण कहते हैं और इस संस्तर को निक्षेपण संस्तर (Illuvial horizon) कहते हैं। B संस्तर में एकत्रित पदार्थ कभी-कभी आपस में प्रक्रिया करके अवक्षेपित होकर जम जाते हैं; जैसे- कैल्शियम कार्बोनेट एवं कैल्शियम सल्फेट आदि ।


2. विशिष्ट मृदा निर्माण प्रक्रम (Specific pedogenic processes) -

  • पोडजोलाइजेशन
  • लेटराइजेशन
  • कैल्सीकरण
  • लवणीकरण
  • क्षारीयकरण
  • पिडोटर्बेशन
  • ग्लीजेशन
  • पीट निर्माण

पोडजोलाइजेशन ( Podzolization ) —

पाडजोल (Podzol) एक रूसी भाषा के शब्द Podzola से लिया गया है। जिसका अर्थ Pod = Under, Zola = Ash अर्थात् राख जैसा। मृदा के ऊपरी संस्तर (A) का रंग राख जैसा होना। मृदा निर्माण का वह प्रक्रम जिसके परिणाम स्वरूप पोडजोल (spodosols) मृदाओं का निर्माण होता है पोडजोलाइजेशन कहलाता है। पोडजोलाइजेशन के लिए ठण्डी एवं शीतोष्ण जलवायु बहुत अनुकूल होती है जहाँ पर अधिक वर्षा होती हो । अधिक वर्षा के कारण ह्यमस तथा सेस्क्वी ऑक्साइड ऊपरी संस्तरों से निक्षालित होकर निचले संस्तरों में चले जाते हैं। जिसके परिणामस्वरूप 'A' संस्तर में क्ले, सेस्क्वी ऑक्साइड तथा ह्यमस की कमी हो जाती है तथा सिलिका की अधिकता रहती है, साथ ही साथ B संस्तर में इन पदार्थों की अधिकता हो जाती है। इस प्रक्रिया द्वारा निर्मित मृदाओं को पौडजोल मृदा कहते हैं। इन मृदाओं की उर्वरता कम होती है। क्योंकि A संस्तर से अधिक मात्रा में क्षार, ह्यूमस तथा क्ले परिच्यवन (leaching) द्वारा बहकर निकल जाते हैं। इसलिए इन मृदाओं का अधिकतर उपयोग वनों एवं घास के मैदानों के लिए होता है। लेकिन कुछ पोडजोल में जई, आलू एवं बरसीम की खेती की जाती है।

लेटराइजेशन ( Laterization ) –

लेटराइट (laterite) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द Later = Brick like से हुई है जिसका अर्थ ईट के समान लाल एवं कठोर होना है। वह प्रक्रम जिसके द्वारा लेटराइट मृदाओं का निर्माण होता है लेटराइजेशन कहलाता है लेटराइट मृदाओं के A संस्तर में फैरिक ऑक्साइड की अधिकता के कारण लाल रंग होता है। इस प्रक्रम में पोडोलाइजेशन के विपरीत सिलिका तथा क्षारीय पदार्थों का परिच्यवन होता है तथा ऊपरी संस्तर (A) में सेक्वी ऑक्साइड रह जाते हैं जिससे इन मृदाओं का रंग लाल भूरा, पीला होता है तथा इनकी प्रकृति अम्लीय होती है ये मृदायें उष्ण जलवायु वाले प्रदेशों में जहाँ वर्षा अधिक होती है, पायी जाती है। इन मृदाओं को लेटराइट मृदा कहते हैं।

कैल्सीकरण ( Calcification ) —

इस प्रक्रम में कैल्शियम कार्बोनेट का प्रोफाइल के कुछ भाग में अवक्षेपण एवं संचयन होता है। कैल्शियम कार्बोनेट के संचयन के परिणामस्वरूप कैल्सिक संस्तर (calcic horizon) का निर्माण होता है। कैल्शियम अम्लीय मृदा जल में आसानी से घुलनशील होता है तथा जब जड़ क्षेत्र में CO2 की सान्द्रता अधिक होती है।
CO2 + H2O ---> H2CO3
H₂CO,+Ca→ Ca (HCO3)2 घुलनशील
इस प्रक्रम में मुदा के ऊपरी सतह में कैल्शियम लवणों का संचयन होता है । यह संचयन कम वर्षा, क्षारीय पदार्थों की अधिकता तथा पारगम्यता में रुकावट के कारण होता है । इस मृदाओं में CSCO, CaSO, आदि की अधिकता के कारण Ca की अधिक मात्रा पायी जाती है। ये मृदायें मुख्यतः शुष्क जलवायु वाले प्रदेशों में पायी जाती है। इन मृदाओं को पेडोकल (pedocal) मृदायें भी कहते हैं।

लवणीकरण ( Salinization ) —

लवणीकरण वह प्रक्रम है जिसमें मृदा के ऊपरी संस्तर में घुलनशील लवण विशेष रूप से सोडियम, कैल्शियम एवं पोटेशियम के क्लोराइड एवं सल्फेट एकत्रित हो जाते हैं। इस प्रकार से निर्मित मृदा को लवणीय या सोलन चैक (solonchak) कहते हैं। इन मृदाओं का निर्माण उन क्षेत्रों में जहाँ जल का स्तर ऊँचा तथा भूमिगत जल खारा होता है और वाष्पीकरण की दर वर्षा से अधिक होती है, होता है । ये मृदायें शुष्क क्षेत्रों में जहाँ अधिक तापक्रम होता है, पायी जाती है।

क्षारीयकरण ( Alkalization ) —

क्षारीयकरण की प्रक्रिया में मृदा संकीर्ण पर सोडियम आयनो का संचयन हो जाता है । जिसके परिणामस्वरूप क्षारीय मृदाओं या सोलोनेटस (solonetz) का निर्माण होता है। यह प्रक्रम भी लवणीकरण के समान दशाओं में होता है केवल अन्तर इतना होता है कि इसमें सोडियम लवण जैसे Na2CO3, NaHCO3 का संचयन होता है । अधिक जल की उपस्थिति में जब Ca लवण निक्षालित हो जाते हैं तब लवणीय मृदायें भी क्षारीय हो जाती हैं । इन मृदाओं में विनिमयशील सोडिम की अधिकता होती है । जब विनिमयशील सोडियम की सान्द्रता 15 प्रतिशत से अधिक हो जाती है तो इन मृदाओं का निर्माण होता है। क्षारीयता के बढ़ने के कारण क्ले का डिफ्लोक्यूलेशन (deflocculation) हो जाता है जिससे उसकी पारगम्यता (permeability) कम हो जाती है । तथा ये खेती के लिए बेकार हो जाती है। क्षारीय दशाओं में कार्बनिक पदार्थ घुलनशील होकर क्ले कणों की सतह पर काली परत के रूप में जम जाता है । क्ले कणों की सतह पर काला रंग होने के कारण इन मृदाओं को काली क्षारीय मृदा (black alkali soils) भी कहते हैं।

पीट निर्माण ( Peat Formation ) —

इन मृदाओं का निर्माण नम व शीत कटिबन्धीय प्रदेशों की जलमग्न अवस्थाओं में अधिक कार्बनिक पदार्थों का संचयन होने के कारण होता है । इन मृदाओं में 20-90% कार्बनिक पदार्थ पाये जाते हैं इसलिए इन्हें कार्बनिक मृदायें (organic soils) कहते हैं। इनमें ह्यूमस की प्रधानता होती है और खेती के लिए उपयुक्त होती है।

ग्लीजेशन ( Gleization ) –

इन मृदाओं का निर्माण जलमग्न व अवकृत या अपचयित अवस्थाओं में होता है इस प्रक्रम में Ca, Mg, Fe एवं Mn के लवणों का संचयन हो जाने से भूरे रंग का संस्तर विकसित हो जाता है, जो ग्ली संस्तर (glei horizon) कहलाता है । इन मृदाओं में क्षण आयरन (Fett) की प्रधानता होती है ।

पिडोटर्बेशन ( Pedoturbation ) —

इस प्रक्रम में मृदा के विभिन्न विकसित संस्तरों का आपस में मिश्रण विभिन्न क्रियाओं द्वारा होता है। जिन क्रियाओं द्वारा मृदा का निर्माण होता है, को पिडोटर्बेशन कहते हैं । मृदा के विभिन्न संस्तरों का सम्मिश्रण लगभग समस्त मृदाओं में होता रहता है ।

इन्हें निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-

  • जन्तु (Faunal) — इसमें मृदा का मिश्रण जन्तुओं द्वारा होता है; जैसे-चींटी केचुआ, दीमक एवं अन्य जन्तु ।
  • पादप (Floral) — इसमें मृदा का मिश्रण विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों द्वारा होता है ।
  • मृत्तिकीय (Argillic) — इसमें क्ले के फूलने एवं सिकुड़ने के कारण मृदा का मिश्रण होता है । 


Disclaimer - Copyright © डॉ जोगेंद्र कुमार (विभागाध्यक्ष) कृषि रसायन विभाग
(आर० एम० (पी० जी०) कॉलेज गुरुकुल नारसन (हरीद्वार)