भारतीय वन के प्रकार एवं उनका वर्गीकरण (Types of forest in hindi)

भारतीय वन के प्रकार (types of forest in hindi) - वनस्पति जगत की सबसे बड़ी विशेषता उनकी विविधता है, जो मुख्यतः विभिन्न जलवायु एवं पर्यावरणीय परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होती है ।

वनस्पतियाँ प्रमुख रूप से वनों में पाई जाती हैं । इस प्रकार, वन के प्रकार (types of forest in hindi) भी जलवायु एवं पर्यावरणीय परिस्थितियों पर निर्भर हैं ।

पृथ्वी पर जीवन का आनन्द वनस्पतियों एवं जन्तुओं के रूप में प्रस्फुटित हुआ है ।

इन दोनों में वनस्पतियाँ इस दृष्टि से विशेष हैं, कि इन्हीं से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में मानव एवं अन्य सभी जीव - जन्तुओं को आहार मिलता है ।

भारतीय वन के प्रकार एवं उनका वर्गीकरण


भारतीय वन के प्रकार एवं उनका वर्गीकरण ( Types of forest in hindi )
वन के प्रकार (types of forest in hindi)


भारत में पायें जाने वाले वनों के प्रकार

उत्तर भारत में हिमालय की चोटियाँ बारह मास बर्फ से ढ़की रहती हैं, जो हाड़ जमा देने वाली ठण्डक से सराबोर करती हैं, तो पश्चिम के थार रेगिस्तान में पूरे वर्ष तन - त्रंण झुलसा देनी वाली गर्मी पड़ती है, पूर्व में मेघ संसार में सर्वाधिक बरसते हैं, तो दक्षिण में पठार तपते - ठण्डे होते रहते हैं और साथ ही भारत के लम्बे समुद्री तट सुहावना मौसम बनाये रखते हैं ।

इन सभी प्रदेशों में जलवायु की भिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है । इसी के अनुरूप भारत के वन एवं वृक्ष अपने भिन्न - भिन्न रूपाकार प्रदर्शित करते हैं ।

भारत में कितने प्रकार के वन पाए जाते है?


जलवायु के आधार पर भारतीय वनों के प्रकार निम्नलिखित है -


भारत एक अनूठा एवं विविधतापूर्ण देश है । यहाँ अनेक प्रकार की जलवायु पाई जाती है, जो भारत की भौगोलिक विविधता का परिणाम है ।

मुख्यत: वन सात प्रकार के होते है -

  1. उष्ण - कटिबन्धीय सदाबहार वाले वन ( Tropical Evergreen Forests )
  2. उष्ण - कटिबन्धीय तर मानसूनी वन ( Tropical Moist Monsoon Forests )
  3. उष्ण - कटिबन्धीय शुष्क कंटीले वन ( Tropical Dry Thorny Forests )
  4. अर्द्ध उष्ण - कटिबन्धीय पहाड़ी वन ( Sub - tropical Montane Forests )
  5. शीतोष्ण पहाड़ी वन ( Temperate monate Forests )
  6. ज्वार प्रदेशीय या दलदली वन ( Tidal or Mangroove Forests )
  7. नदी तट के वन ( Riverine Forests )


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    भारत में वन के प्रकार (Types of forest in hindi) -


    भारत में अनेक प्रकार की जलवायु पाई जाती है और इसी के अनुरूप भारतीय उपमहाद्वीप में अनेक प्रकार के वन (forest in hindi) विराजमान हैं ।

    उष्ण - कटिबन्धीय सदाबहार वाले वन ( Tropical Evergreen Forests )

    उष्ण - कटिबन्धीय सदाबहार वाले वन उन भागों में पाये जाते हैं, जहाँ वार्षिक आर्द्रता 75 प्रतिशत और वर्षा का औसत 2000 सेण्टीमीटर अथवा इससे अधिक होता है और वार्षिक औसत तापमान 28 ° C के लगभग रहता है ।

    यहाँ वर्षा ऋतु रुक - रुक कर 8 माह तक बनी रहती है । ये भाग क्रमश: उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्वी हिमालय के उप - प्रदेश और दक्षिण में पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढाल व तट पर महाराष्ट्र से उत्तरी और दक्षिणी कनारा, नीलगिरि, अन्नामलाई व इलायची की पहाड़ियों, कर्नाटक तट, केरल और अण्डमान - निकोबार द्वीप तक फैले हैं ।

    उत्तर - पूर्वी में ये वन उत्तरी बंगाल के अर्द्ध - पर्वतीय क्षेत्रों में उड़ीसा के तटीय भागों - असम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, मणिपुर और मेघालय में मिलते हैं ।

    इन वनों का क्षेत्रफल लगभग 24,800 वर्ग किलोमीटर अनुमानित किया जाता है ।

    पश्चिमी घाट पर ये 450 मीटर से 1,360 मीटर की ऊंचाई के बीच और असम में 1,060 मीटर की ऊँचाई तक मिलते हैं ।

    सामान्यत : अधिक वर्षा के कारण ये सघन और सदाबहार रहते हैं । वर्षा की मात्रा में कमी होने से यह अर्द्ध - सदाबहार जाते हैं । वनस्पति की विविधता और अधिकता इन वनों की विशेषता है ।

    वृक्षों की ऊँचाई 40 से 60 मीटर तक होती है । विभिन्न प्रकार की लताओं, गुल्मों, झाड़ियों तथा छोटे पौधों की अधिकता एवं दलदल होने से ये वन (forest in hindi) प्राय: दुर्गम होते हैं ।

    उष्ण - कटिबन्धीय सदाबहार वाले वनों में अधिकतर रबड़, महोगनी, एबौनी, लौह - काष्ठ, जंगली आम, साल, नाहर, गुरजन, तुलसर, तून , ताड़ तथा बांस, बेत, आदि वृक्ष और कई प्रकार की लताएँ अधिक उगती हैं ।

    फर्न (Ferns) के अंतर्गत Vabua indica, Hopea parxifiora और xylia xylocarpa मुख्य हैं ।

    लकड़ियाँ कड़ी होने के कारण ये वन (forest in hindi) आर्थिक दृष्टि से ज्यादा महत्व नहीं रखते हैं । इनका उपयोग जलावन के कार्य में होता है ।

    परन्तु यह प्राकृतिक वनस्पति, जैव विविधता एवं पारिस्थतिक दृष्टि से पर्याप्त महत्व रखती है । हाल के वर्षों में इस वनस्पति के क्षेत्र में रबड़ एवं तेल ताड़ के वृक्ष लगाए जा रहे हैं ।

    ऐसे वनों में आर्किड की विभिन्न प्रजातियाँ देखने को मिलती हैं । भारत में इस प्राकृतिक वनस्पति का समुचित विदोहन नहीं हुआ है ।

    इसके कई कारण हैं, जैसे - अत्यधिक सघन होना, मिश्रित वृक्षों का पाया जाना, परिवहन सुविधा का अभाव आदि ।

    उष्ण - कटिबन्धीय तर मानसूनी वन ( Tropical Moist Monsoon Forests )


    उष्ण - कटिबन्धीय तर मानसूनी वन अधिकतर उन भागों में पाये जाते हैं जहाँ वर्षा प्राय: 100 से 200 सेण्टीमीटर तक होती है । औसत वार्षिक तापमान 26°C से 30°C और आर्द्रता का प्रतिशत 60 से 80 के बीच रहता है ।

    ग्रीष्म ऋतु में आर्द्रता की कमी के कारण वृक्षों की पत्तियाँ झड़ जाती हैं जिससे उनकी नमी नष्ट न हो सके ।

    इन भागों में ऊँचे ( 20 से 45 मीटर ) और मजबूत वृक्षों के लिए काफी जल मिल जाता है, किन्तु वर्षा की इतनी अधिकता नहीं होती कि वन (forest in hindi) दुर्गम हो जाए, अत: इन वृक्षों के नीचे अधिक झाड़ - झंखाड़ नहीं पाये जाते किन्तु प्रकाश मिलने से घास व बांस अधिक पैदा होते हैं ।

    उष्ण - कटिबन्धीय तर मानसूनी वन हिमाचल प्रदेश से असोम तक हिमाचल के बाहरी और निचले ढालों पर मिलते हैं ।

    उष्ण - कटिबन्धीय तर मानसूनी वन उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखण्ड, उड़ीशा, पश्चिम बंगाल और दक्षिण में पश्चिमी घाट के पूर्व से लगाकर मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तमिलनाडु व कर्नाटक का अधिकांश आर्द्र पठारी भाग और पूर्वी केरल के शुष्क भागों में कुमारी अन्तरीप तक मिलते हैं ।

    उष्ण - कटिबन्धीय तर मानसूनी वन में सागवान, साखू, साल, कुसुम, बांस, पलास, हल्दू , हर्ड - बहेड़ा, आंवला, अंजन, अंजू, जारूल, शीशम, लाल व सफेद चन्दन की लकड़ियाँ प्राप्त होती है ।

    इन्हीं वनों से मूल्यवान सागवान और साल की इमारती लकड़ियाँ प्राप्त होती हैं । इन वनों को सुरक्षित वनो की श्रेणी में रखा गया है ।

    मध्य प्रदेश के पठारी भाग और महाराष्ट्र के चन्द्रपुर ( चांदा ) जिले सागवान लकड़ी के लिए विख्यात हैं ।

    अधिकांश लाख भी झारखण्ड, बिहार छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश के दूध वाले वृक्षो पीपल, वट वृक्ष, पलास, आदि से प्राप्त होती है ।

    मानसूनी वन (forest in hindi) आर्थिक दृष्टि से काफी अधिक महत्व रखते हैं । हाल के वर्षों में कृषि फार्मों के विस्तार हेतु इन वनों की काफी कटाई की गई है ।

    इनके अतिरिक्त इमली ( Terminalea anogeissus ), शीशम ( Dalbergia sissoo ) यूजेनिया ( Eugenia ), Hardwikia sterculia, आदि वृक्ष भी मिलते हैं ।

    इन वनों से ही मुंज खसखस और कांस प्रभृति घासे प्राप्त होती हैं ।


    उष्ण - कटिबन्धीय शुष्क कंटीले वन ( Tropical Dry Thorny Forests )


    जिन भागों में वर्षा की मात्रा 50 से 100 सेण्टीमीटर के मध्य होती है आर्द्रता 50 से 60 प्रतिशत और तापमान 20 से 35 तक रहता है, वैसे क्षेत्रों में उष्ण - कटिबन्धीय शुष्क कंटीले प्रकार के वन की वनस्पति पायी जाती है ।

    यहाँ वर्षा सीमित होने से छोटे व पतझड़ वाले वृक्ष पाये जाते हैं । इन वृक्षों की साधारणतः ऊँचाई 6 से 9 मीटर तक होती है ।

    यहाँ विशेषतः ऐसे वृक्षों अथवा झाड़ियों की अधिकता होती है जो जल की कमी सहन करने में सक्षम होती हैं इन वृक्षों की जड़े बहुत लम्बी और मोटी होती हैं जिससे वे भूगर्भ से जल चूस सकें और उन्हें अपने मोटे भागों में संचित रख सकें ।

    कुछ वृक्ष मोटी पत्ती वाले अथवा कांटेदार होते हैं, जिससे कि तीव्र वाष्पीकरण से बचा सके । कइयों पर पत्तियाँ बिल्कुल नहीं या बहुत कम होती है किन्तु कांटे अधिक होते हैं ।

    सूर्य की तेज किरणे कांटों की नोंक द्वारा जल की बहुत ही कम मात्रा को उड़ा पाती हैं तथा इन कांटों के कारण वह पशुओं के खाये जाने से भी बच जाते हैं ।

    जिन भागों में वर्षा 30 सेण्टीमीटर से 45 सेण्टीमीटर के मध्य होती है वहाँ पर कंटीली झाड़ियाँ खेजड़ा, बबूल, केर, आंवला, आरीठा, कूमठा, थूहर, आकसा, आदि दूर - दूर बिखरे हुए पाये जा सकते हैं ।

    उत्तरी भारत में वनों के प्रकार दक्षिणी - पश्चिमी पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दक्षिणी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाए जाते हैं ।

    दक्षिणी प्रायद्वीप के शुष्क भागों में आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र के आन्तरिक भागों में भी इसी प्रकार के वन मिलते हैं इन वनों में अधिकतर नागफनी, रामबांस, खेजड़ा, खैर, बबूल, महुआ, नीम , कीकर, कैर, बेर, आंवला, हर्ड, रीटा, कुमटा, खजूर, बड़, पीपल, आदि वृक्ष पाये जाते हैं ।

    इन वृक्षों की लकड़ियाँ मुख्यतः ईंधन के काम में आती है ।
    कुछ का उपयोग ( जैसे शीशम, देशी सागवान, नीम, बबूल, रोहिड़ा, आदि ) का इमारती कार्यों के लिए भी किया जाता है ।

    उष्ण - कटिबन्धीय शुष्क कंटीले वनों से कत्था, गोंद, कैर, सांगरी अनेक प्रकार की जड़ी बूटियाँ, देशी दवाइयाँ, खसखस आदि प्राप्त किये जाते हैं ।

    घास का प्राय: अभाव पाया जाता है ।

    अर्द्ध उष्ण - कटिबन्धीय पहाड़ी वन ( Sub - tropical Montane Forests )


    अर्द्ध उष्ण - कटिबन्धीय पहाड़ी वन उष्ण - कटिबन्धीय हरे - भरे वनों से मिलते - जुलते है, किन्तु इनमें न तो उसकी तरह इतना घनापन ही होता है और न ये इतने ऊँचे होते हैं ।

    कुछ भागों में तो ये 15 मीटर या उससे भी कम ऊँचे होते हैं । दक्षिणी भारत में इस प्रकार के वन 915 से 1,525 की ऊँचाई तक मिलते है ।

    इनका सबसे अधिक विस्तार नीलगिरि, शिवराय, अन्नामलाई और पालनी की पहाड़ियों तथा उनके निकटवर्ती भागो मे और महाराष्ट्र में महाबलेश् वर तथा मध्य प्रदेश में पचमढ़ी में है ।
    यहाँ के मुख्य वृक्ष ओक, मेपल, यजिनिया और सिनैमोमम आदि हैं ।

    उत्तरी भारत में इस प्रकार के वन अधिकांशत: पूर्वी हिमालय तथा असम की पहाड़ियों पर 915 से 1.830 मीटर की ऊँचाई पर मिलते हैं ।

    अर्द्ध उष्ण - कटिबन्धीय पहाड़ी वनों को 'शोलास' ( Shoias ) के नाम से जाना जाता है ।

    इनमें मुख्यत: बलूत, चैस्टनट, देवदार, लारेल, चीड़, बलूत, एलनस, आदि वृक्षों के कुंज भी विकसित किये गये है ।
    अनुकूल परिस्थितियों में यहाँ के वृक्ष 30 से 45 मीटर तक ऊँचे हो जाते है जिनके नीचे सदैव झाड़ियों की अधिकता पायी जाती है ।

    शीतोष्ण पहाड़ी वन ( Temperate monate Forests )


    शीतोष्ण पहाड़ी वनों के वृक्ष 15 से 18 मीटर ऊँचे तथा मोटे तने वाले होते है जिनके नीचे घनी झाड़ियाँ पाई जाती हैं ।
    इन वृक्षों की पत्तियाँ घनी और सदाबहार होती हैं । इसकी टहनियों पर भी कई लताएँ आदि लिपटी रहती हैं ।

    यह अनामलाई, पालनी और नीलगिरि पहाड़ियों के अधिक ऊँचे भागों में पाए जाते हैं ।

    यूजेनिया मिचेलिया ( Michelia निलेगरिका, Enrya japonica, Terustrocmia japonica ) और रोडेनड्रोण्ड्रस मुख्य वृक्ष हैं ।

    उत्तरी भारत में इस प्रकार के वन प्रदेश पूर्वी हिमालय और असम की पहाड़ियों पर 1.830 से 2,800 मीटर ऊँचाई तक मिलते है ।

    यहाँ के मुख्य वृक्ष चीड़, लारेल बलूत, देवदार और चैस्टनट हैं ।

    ज्वार प्रदेशीय या दलदली वन ( Tidal or Mangroove Forests )


    ज्वार प्रदेशीय या दलदली वन उन भागों में पाये जाते हैं जहाँ समुद्र तट पर ज्वार - भाटा के कारण खारा जल फैल जाता है ।

    यहाँ की मिट्टी भी दलदली होती है । अस्तु, यहाँ मुख्यतः ऐसी वनस्पति पैदा होती है जिसकी जड़ें सदैव नमकीन जल में डूबी रहती हैं ।

    इनसे शाखाएँ निकलकर चारों ओर फैल जाती हैं । ये वृक्ष ऊँचे व सदा हरे - भरे रहते हैं । इसमें मुख्यत: हैरोटोरिया, ताज, नारियल, ताड़, बेंत, बांस, सरप्लोस, रोजोफरोरा, सोनेरीटा, फोनिक्स, सुन्दरी, आदि किस्म की वनस्पति पायी जाती है ।

    वनों के प्रकार (types of forest in hindi) मुख्यत: पूर्वी तट पर गंगा के डेल्टा, तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश के तटवर्ती जिलों और महानदी, कृष्णा, गोदावरी, आदि नदियों के डेल्टा में मिलते हैं ।

    नारियल, ताड़ बेंत, बांस, सुन्दरी, सोनेरीटा, फोनिक्स आदि वृक्ष यहाँ पाए जाते हैं ।

    सुन्दरी वृक्षों की अधिकता के कारण ही गंगा, ब्रह्मपुत्र डेल्टा के मैंग्रोव वन को सुन्दरवन कहा जाता है ।

    तमिलनाडु के तट पर ताड़ एवं केरल के तट पर नारियल के वृक्षों की प्रधानता है ।

    नदी तट के वन ( Riverine Forests )


    वर्षा में नदियों की बाढ़ का जल नदियों के दोनों किनारों पर जहाँ तक फैल जाता है नदी तट के वन उग आते हैं ।

    जो वृक्ष नदी तटों के निकट होते हैं वे अपनी लम्बी जड़ों द्वारा भूमिगत जल को खींचकर बड़े ऊँचे और सुदृढ़ बन जाते हैं, किन्तु जो वृक्ष नदी तट से दूर होते हैं वे प्राय: छोटे और दुर्बल हो जाते हैं ।

    इन वृक्षों में मुख्यत: बबूल, शीशम, जामुन, महुआ, नीम, आम, शहतूत, पीपल, इमली, खैर, आदि हैं ।

    ऐसे वन पंजाब से लगाकर असम तक मिलते हैं, किन्तु चूंकि नदी तट की भूमि में खेती अधिक की जाती है ।

    अत: वन (forest in hindi) कम घने ही होते हैं, इन्हीं से किसानों को ईंधन उपलब्ध होता है ।


    भारतीय वन का विस्तृत वर्गीकरण (classification of forest in hindi)


    स्वतंत्रतापूर्व अंग्रेजों ने वनों को जिन उद्देश्यों एवं आवश्यकताओं के आधार पर वर्गीकृत किया था ।

    स्वतंत्रता के पश्चात् जब भारत में लोकतंत्र की स्थापना हुई तो इन उद्देश्यों एवं आवश्यकताओं में परिवर्तन हुआ और उसी के अनुरूप वनों का पुनर्वर्गीकरण किया गया ।

    बाद में भारत में सामाजिक वानिकी की अवधारणा के व्यवहारिक रूप में प्रारम्भ किये जाने पर वनों को कुछ अन्य आधारों पर भी वर्गीकृत किया जाने लगा ।

    वनों का वर्गीकरण (classification of forest in hindi)


    वन (forest in hindi) धरती का श्रृंगार एवं जीवन का आधार हैं । मानव ने जबसे धरती पर कदम रखा तभी से वनों को प्रकृति के एक उपहार के रूप में ग्रहण किया ।

    वनों का वर्गीकरण (classification of forest in hindi)
    वनों का वर्गीकरण (classification of forest in hindi)


    विकास के साथ - साथ वनों का वर्गीकरण (classification of forest in hindi) प्रमुखता से दोहन किया जाने लगा ।

    प्रारम्भ में मानव वनों के साथ एकाकार अवस्था में रहा और जंगली कंदमूल, वृक्ष छाल एवं सीमित शिकार जैसी अपनी सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति वनों के साथ पूर्ण तदात्म्यता की स्थिति में आसानी से करता रहा ।

    भौतिकता की वृद्धि के साथ - साथ मानव की वन्य भूख भी बढ़ती गई और मानव ने ज्यों - ज्यों नई - नई तकनीकों का विकास किया त्यों - त्यों इसके प्रयोग से वनों के दोहन के नवीन मार्ग भी बना लिए ।

    भारतीय वनों का राजनीतिक - समाजिक वर्गीकरण (Socio - Political Classification of Indian Forests)


    कृषि के विकास के साथ झूम खेती के लिए वनों को जलाया गया । नगरों के विकास के साथ बढ़ती काष्ठ आवश्यताओं के लिए वनों को काटा गया ।

    औद्योगिकरण के विकास के साथ अनेक आवश्यकताओं जैसे - रेलवे लाईन बिछाने के लिए, सड़के निकालने के लिए एवं विद्युत लाईने आर - पार पहुँचाने के लिए वनों को भारी संख्या में गिराया गया ।

    जनसंख्या वृद्धि के साथ वन्य दोहन के इस बेलगाम कुचक्र में अप्रत्याशित वृद्धि हो गई और वनों का विनाश जोर - शोर से होने लगा ।

    मानवीय सभ्यता की इस विकास लीला ने आखिर वनों को सिकुड़ाते - सिमटाते हुए इतना अधिक सीमित कर दिया कि भारी पारिस्थितिकी असंतुलन उत्पन्न हो गया और पर्यावरण प्रदूषण की समस्या मानव इतिहास की सर्वाधिक प्रमुख समस्या बन कर विनाश का महातांडव करने को तैयार हो गई ।

    वनों को अनेक आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है -


    सम्पूर्ण मानवता एवं समूल जीवन को संकट में डाल कर मानव आज एक - दूसरे को वनों का महत्त्व (Importance of forest in hindi) समझाने लगा है और वनों की सुरक्षा, संरक्षण एवं समझ के लिए वनों का अनेक प्रकार से वर्गीकरण करने लगा है ।

    वनों का ब्रिटिशकालीन वर्गीकरण ( British Time Classification of Forests )


    ब्रिटिश शासन में वनों को प्रशासनिक दृष्टि से निम्न तीन श्रेणियों में बाँटा गया था -


    ( 1 ) जो वन जलवायु की दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हैं उन्हें सुरक्षित वन (Reserved forests) कहते हैं ।

    इन वनों का क्षेत्रफल 49 प्रतिशत है । इनमें न तो लकड़ियाँ ही काटी जा सकती है और न पशु ही चराने दिए जाते हैं, क्योंकि ये सरकारी सम्पत्ति माने जाते हैं ।

    बाढ़ों पर नियन्त्रण करने, भूमि क्षरण से सुरक्षा और मरुस्थल प्रसार को रोकने वन्य प्राणियों के आवास को समुचित संरक्षण प्रदान करने तथा जलवायु तथा भौतिक कारणों से इनकी आवश्यकता होती है ।

    इसके अंतर्गत ही अधिकांश राष्ट्रीय पार्क एवं अभयारण्य भी आते हैं ।

    ( 2 ) दूसरे प्रकार के वनों को रक्षित वन (Protected forests) कहते हैं ।

    इसमें विशेष नियमों के अधीन मनुष्यों को अपने पशुओं को चराने तथा लकड़ी काटने को सुविधा दी जाती है ।

    किन्तु इन पर पैनी नजर रखी जाती है जिससे वनों को हानि न पहुँचे । इस प्रकार के वनों का क्षेत्रफल कुल वनों का 34 प्रतिशत है ।

    ( 3 ) शेष वनों को स्वतन्त्र या अवर्गीकृत वन कहते हैं ।
    इनमें लकड़ी काटने एवं पशुओं को चराने पर सरकार की ओर से कोई प्रतिबन्ध नहीं है ।

    सरकार इसके लिए कुछ शुल्क लेती है । इन वनों का क्षेत्रफल 17 प्रतिशत है ।

    स्वतंत्रता पश्चात् वनों का संवैधानिक वर्गीकरण ( Constitutional Classification of Forests After Indipendence )


    स्वतंत्रता पश्चात् वनों को संविधान के अंतर्गत निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया है -


    ( 1 ) राजकीय वन पूर्णतः सरकारी नियन्त्रण में होते हैं । भारत में लगभग 94 प्रतिशत वन इस प्रकार के हैं ।

    ( 2 ) सामुदायिक वन (forest in hindi) प्राय: स्थानीय नगर निगम, नगरपालिकाओं एवं जिला परिषदों के अंतर्गत हैं । लगभग 3.1 प्रतिशत वन इस प्रकार के हैं ।

    ( 3 ) व्यक्तिगत वन व्यक्तिगत लोगों के अधिकार में हैं । कुछ वनों का लगभग 1.7 प्रतिशत इस प्रकार के वन हैं ।

    अन्य आधारों पर वर्गीकरण ( Classification of other Basis )


    वनों को अन्य आधारों पर भी वर्गीकृत किया जा सकता है, अन्य आधारों पर प्रमुख वर्गीकरण निम्न प्रकार हैं -


    ( 1 ) विदोहन अथवा व्यापारिक आधार पर ( Exploitable or Merchantable )


    इसके अंतर्गत विदोहन योग्न वन वे वन हैं, जो मानव की पहुँच के भीतर है ।

    कुछ वनों का लगभग 18 प्रतिशत पहुँच के बाहर हैं , जो ऊँचे पर्वतों पर पाए जाते हैं । शेष 82 प्रतिशत पहुँच के भीतर हैं ।

    ऐसे वनों में चौड़ी प्रकार की पत्ती वाले वन मिलते हैं - निकोबार द्वीपसमूह, असम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा , सतपुड़ा, मैकाल की पहाड़ियों पश्चिमी घाट, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के निकटवर्ती जिल, झारखण्ड और महाराष्ट्र के चन्द्रपुर जिले में ये वन (forest in hindi) पाए जाते हैं ।

    ( 2 ) प्राकृतिक एवं मानवरोपित वन ( Natural and Human Planted Forests ) 


    प्राकृतिक वन वे वन हैं, जो प्रकृति में स्वयंमेव अर्थात् बगैर किसी मानवीय प्रयास के उगते एवं विकसित होते हैं, इसके विपरीत मानवरोपित वन वे वन हैं, जिन्हें मानवीय प्रयास से रोपित एवं विकसित किया जाता है ।

    प्राकृतिक वनों को सामान्य भाषा में जंगल कहा जाता है । भूमि पर एवं भारत में अधिकांश वन इसी श्रेणी के हैं ।

    भवानी प्रसाद मिश्र ने अपनी लम्बी कविता सतपुड़ा के घने जंगल में प्राकृतिक वनों का बड़ा सटीक वर्णन किया है ।

    'सामाजिक वानिकी (social forestry in hindi)' एवं 'कृषि वानिकी (Agro - Forestry in hindi)' के अंतर्गत वनों की खेती मानवरोपित वनों के प्रमुख प्रकार हैं ।


    भौगोलिक दृष्टि से भारत के वनों का वर्गीकरण ( Geographical Classification of Indian Forests )


    भौगोलिक दृष्टि से भारत के वनों को छह प्रकार के वनों में वर्गीकृत किया जा सकता है -


    ( 1 ) पूर्वी हिमालय,
    ( 2 ) पश्चिमी हिमालय,
    ( 3 ) सतलज बेसीन, जो राजस्थान में अरावली तक है,
    ( 4 ) गंगा का मैदान,
    ( 5 ) मालाचर तट, और
    ( 6 ) दक्कन ।

    हिमालय पर्वत पर ऊँचाई के अनुसार ही वनस्पति पायी जाती है । हिमालय के पूर्वी भागों में जहाँ भारी वर्षा होती है । 

    पश्चिमी भागों की अपेक्षा घने और विविध प्रकार के वन पाये जाते हैं ।

    अस्तु, हिमालय के वन प्रदेशों को मुख्यत: दो भागों में बांटा जा सकता है -


    ( 1 ) पूर्वी हिमालय के वन, और
    ( 2 ) पश्चिमी हिमालय के वन ।

    ( 1 ) पूर्वी हिमालय के वन


    ( क ) उमाकरिबननीय वन के अंतर्गत तराई से लेकर 1,520 मीटर की ऊँचाई तक उसने वाले सदावणा के वन सम्मिलित है ।

    इनमें साल चिनौली, दिलेनिया, अमूरा सोपन शीणम, खर साल, महुआ, लेंदी तथा चन्दन के वृक्ष पाये जाते हैं ।

    सवाना प्रकार की लम्बी चाम, बलसम, ओ चिट की आड़ियाँ भी इन वनों में उगती है ।

    बांस के झाड़ तथा लताओं के कारण ये वन (forest in hindi) और न ही गय है ।

    ( ख ) शीतोष्ण कटिबन्धीय वन के अंतर्गत पूर्वी हिमालय मे ओक, बर्च, मैपिल, एल्डर, मगनोलिया तथा लारेल के चौड़ी पत्तियों वाले वृक्ष 91.520 मीटर से 2,740 मीटर की ऊँचाई तक मिलते है ।

    ( ग ) शीतोष्ण कटिबन्धीय शंकुल वन 2,740 मीटर से 3,600 मीटर को ऊँचाई तक मिलते हैं ।

    इनमें मुख्यत: विलोफर, रोडेनडोण्डूस, चोड़, स्यूस, देवदार, आदि नुकीली पत्नी वाले वृक्ष मिलते हैं । ये शंकुधारी वनों की पेटी है ।

    ( घ ) उच्च पर्वतीय वन 3.657 मोटर से 4,876 मीटर के बीच में मिलते हैं ।

    इनमें सिल्वर, फर, वर्च, जूनीफर, भोजपत्र, रोडेनडोण्ड्स, मुलायम घास एवं अधिक ऊँचे भागों पर सैज तथा लिचन पैदा होती है ।

    ( ड ) 4.870 मीटर से प्राय: 6,000 मीटर तक छोटी - छोटी घास तथा सुन्दर पुष्पों के पौधे मिलते है । यह सिप ग्रीष्म काल में ही विकसित होते हैं ।

    ( च ) 6.000 मीटर के पश्चात् हिम - मण्डित क्षेत्रों का विस्तार बढ़ता जाता है । जो लगभग वन एवं वनस्पति शून्य क्षेत्र है ।

    ( 2 ) पश्चिमी हिमालय के वन


    पश्चिमी हिमालय तुलनात्मक रूप से शुष्क एवं ठण्डा होने के कारण पूर्वी हिमालय की वनस्पतियों से भिन्नता रखता है ।

    पूर्वी हिमालय के विपरीत परजीवी पौधों एवं फर्न का अभाव पाया जाता है । पर्वतपाद क्षेत्र में मुख्यत: शुष्क सवाना वनस्पति का विस्तार विशाल क्षेत्रों में देखने को मिलता है ।

    इस क्षेत्र में मुख्यत: तीन प्रकार के वन पाए जाते हैं, जो इस प्रकार हैं -


    ( क ) अर्द्ध - उष्णकटिबन्धीय वन -


    ये 1,520 मीटर की ऊँचाई तक पाये जाते हैं । इनमें साल, ढाक, सेमल, बांस, ताड़, आंवला, पीपल, शीशम, गूलर, जामुन, बेर , आदि अधिक पाये जाते हैं ।

    ( ख ) शीतोष्ण कटिबन्धीय वन -


    इन वनों में चौड़ी पत्ती तथा नुकीली पत्ती वाले वृक्ष मिश्रित रूप में मिलते हैं । इनका विस्तार 1,520 मीटर से 3,660 मीटर तक है ।

    निचले भागों में वर्षा की कमी और शीत की अधिकता के कारण चीड़, देवादार, बलसम, ब्लूपाइन, एल्डर, एल्म, बर्च, पोपलर और ओक के वृक्ष मिलते हैं ।

    यहाँ विभिन्न प्रकार के गुलाब ( Lily, Mountain Ash और Hawthorm ) भी मिलते हैं । यहाँ 2,340 मीटर से अधिक ऊँचाई पर नीली चीड़ और सिल्वर फर के वृक्ष पाये जाते हैं ।

    ( ग ) पर्वतीय वन -


    साधारणत: 3,660 मीटर से 4,570 मीटर की ऊँचाई तक मिलते हैं । यहाँ जूनीफर, सिल्वर फर और बर्च अधिक मिलते हैं ।

    इसके पश्चात् मुलायम घास एवं पुष्प पाये जाते हैं । 5,100 मीटर के पश्चात् हिम क्षेत्रों का विस्तार बढ़ता जाता है ।

    इस प्रकार हिमालय पर ऊँचाई के साथ - साथ वनस्पति की किस्म में भी अन्तर पड़ता जाता है ।

    निचले भागों में चौड़ी पत्ती वाले वृक्ष (Deciduous) साधारणत: 6 से 15 मीटर ऊँचे होते हैं । ये वृक्ष काफी खुले होते हैं ।

    ऊँचे भागों में नुकीली पत्ती (Coniferous) वाले 18 मीटर से अधिक ऊँचे मिलते हैं । बसन्त ऋतु में इन प्रदेशों में प्रिमूला और मैकोनापिस आदि किस्मों के कुल सरलायत से होते हैं तथा ग्रीष्म ऋतु में उत्तम घास भी पायी जाती है ।

    ( 3 ) सतलज बेसिन का वन प्रदेश


    राजस्थान में अरावली होते हुए गुजरात और कच्छ तक फैला है ।

    निम्न हिमालय तथा अरावली के ढालों को छोड़कर अथवा जहाँ नदी बेसिनों के निकट एवं बड़े पैमाने पर सिंचाई की सुविधाएँ हैं अन्य सभी क्षेत्रों में वनस्पति बहुत ही बौनी और बिखरी पाई जाती है ।

    इसका स्वरूप अर्द्ध मरुस्थलीय है । अधिकतर ऐसी वनस्पति मिलती है जो झाड़ियों का रूप लिए हुए होती है और जो अधिक समय तक सूखे की मार सह सकती है ।

    पर्वतीय भागों में सर्वत्र वर्षा की मात्रा एवं जल उपलब्धि के अनुसार ही मानसूनी किस्म के पर्णपाती वृक्षों की भी अनेक किस्में पाई जाती हैं ।

    पंजाब, हरियाणा एवं उत्तरी राजस्थान के नहरी क्षेत्रों में बबूल, यूकेलिप्टस, शीशम, गूलर, फलदार वृक्षों, शीशम नीम, पीपल आदि के स्थानीय बगीचों या कुँजो का एवं नहरों के समीप स्थित मार्गों के किनारे दूर - दूर तक विकास किया गया है ।

    इसीलिए पंजाब, हरियाणा व उत्तरी राजस्थान क नहरी क्षेत्र सर्वत्र वन क्षेत्रों की भाँति ही वर्ष भर हरा भरा रहता है ।

    ( 4 ) गंगा का मैदान


    यह गंगा - यमुना नदियों के दो - आब क्षेत्र में स्थिति है, जो कि यद्यपि अत्यन्त उपजाऊ है तथापि वनों एवं प्राकृतिक वनस्पति से नितांत विहीन है ।

    यहाँ अधिक जनसंख्या के कारण वन क्षेत्रों का निरन्तर ह्रास होता रहा है ।

    वर्षा में भिन्नता पाई जाने के कारण तीन प्रकार की वनस्पति पाई जाती है -


    ( अ ) पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शुष्क सूखे वन तथा सवाना किस्म की घास पाई जाती है ।

    ( ब ) गंगा के मध्य और पूर्वी क्षेत्र में बिहार, असम और प ० बंगाल के डेल्टाई भागों के अतिरिक्त आम, अंजीर, ताड़, कटहल, सुपारी आदि के वृक्ष तथा चावल के खेत और कमल से भरे असंख्य तालाब पाए जाते हैं ।

    यहाँ पर सर्वत्र सिंचित क्षेत्रों में फलदार वृक्षों पपीता, अमरूद, चीकू, नासपाती, केला, नारंगी, अंगूर, आदि के छोटे - छोटे बगीचे शहतूत, शीशम, फ्लास, आम, बांस, यूकेलिप्टस, आदि के व्यवसायिक फार्म आदि दूर - दूर तक फैले है । 

    आमों का बगीचा लगाना यहाँ के कृषक पवित्र काम मानते हैं ।

    ( 5 ) मालावार तट


    इस तट की जलवायु तर एवं उष्ण है, अत: यहाँ घनी वनस्पति पाई जाती है ।

    तटीय क्षेत्रों में नारियल व रबर के वृक्ष, सुपारी, कटहल, काली मिर्च और पान की लताएँ पाई जाती है ।

    वनस्पति अधिकतर मलेशिया समूह और श्रीलंका समूह से मिलती - जुलती पाई जाती है ।

    पूर्वी घाट के पूर्वी भागों में सागवान तथा चन्दन के वृक्ष पाए जाते हैं ।

    पश्चिमी घाट के पश्चिमी भागों में अधिक वर्षा के कारण सदाबहार के अनेक किस्म के वन मिलते हैं, जिन्हें शोला वन (Shola Forests) कहते हैं ।

    ( 6 ) दक्कन के पठार


    इस पठारी क्षेत्र के तटीय भागों में तथा पूर्वी भागों में जहाँ 200 सेण्टीमीटर से अधिक वर्षा होती है, सदाबहार के वन और अन्यत्र मानसूनी वन मिलते हैं ।

    उत्तर में साल, मध्यवर्ती क्षेत्रों में सागवान और दक्षिणी भागों में सटिनबुड, श्वेत चन्दन, लाल चन्दन, तुन, आदि के वृक्ष पाए जाते हैं ।